केन्द्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व भाजपा सत्ता के नौ वर्ष पूरे करने जा रही है। इस अवसर पर देश भर में संपर्क से समर्थन के नाम पर कई आयोजन किये जा रहे हैं। इन आयोजनों में नौ वर्षों की उपलब्धियां जनता के सामने रखी जायेंगी। इन नौ वर्षों में पार्टी ने जो चुनावी सफलतायें हासिल की है उनके आधार पर यह जनधारणा बनाने का प्रयास किया गया कि ‘‘मोदी है तो कुछ भी मुमकिन है’’ इसी धारणा के कारण मोदी ने नौ वर्षों में केवल अपने ही मन की बात देश को सुनाई। कभी कोई खुली पत्रकार वार्ता तक आयोजित नहीं की। मोदी के किसी भी फैसले पर पार्टी के भीतर कभी कोई सवाल नहीं उठाया गया। यहां तक की करोना जैसी महामारी को भगाने के लिये मोदी के आदेश पर ताली थाली बजाने और दीपक जलाने पर अमल किया गया। इन नौ वर्षों में देश में एक ही राजनीतिक दल की सत्ता स्थापित करने के उद्देश्य से सहयोगी दलों तक में विभाजन की स्थितियां पैदा कर दी गयी। कांग्रेस मुक्त भारत तो राजनीतिक एजैण्डा बन गया। राजनितिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिये केन्द्रीय जांच एजैन्सियों का खुलकर इस्तेमाल किया गया। विरोध और मतभेद के स्वरों को देशद्रोह करार दे दिया गया। लोकतांत्रिक संस्थाओं का अस्तित्व प्रश्नित हो उठा। न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर संकट के बादल मंडराने लगे। पूर्व केन्द्रीय कानून मन्त्री किरण रिज्जू के ब्यान इसके गवाह है।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जब कन्याकुमारी से कश्मीर तक भारत जोड़ो यात्रा शुरू की तो उसे रोकने और असफल बनाने के परोक्ष/अपरोक्ष प्रयास किये गये। यह सब देश देख चुका है। एक मानहानि मामले में किस तेजी के साथ राहुल की सांसदी और आवास छीने गये यह किसी से छुपा नहीं है। इन नौ वर्षों में हिंन्दू-मुस्लिम एजैण्डे को लागू करने के लिये किस तरह अपरोक्ष में उच्च न्यायपालिका का भी प्रयोग हुआ यह मेघालय उच्च न्यायालय के जस्टिस सेन के फैसले से सामने आ जाता है। नोटबन्दी के फैसले से देश की अर्थव्यवस्था को कितना आघात पहुंचा है उसका अंदाजा इसी से लग जाता है कि बाद में ऑटोमोबाइल और रियल एस्टेट जैसे क्षेत्रों को विशेष आर्थिक पैकेज देने पडे। नोटबन्दी की सफलता का प्रमाण इसी से मिल जाता है कि सात वर्ष बाद ही दो हजार के नोट को चलन से बाहर करना पड़ा है। आज जब भाजपा नौ वर्षों की उपलब्धियां लेकर जनता में जायेगी तो क्या इस नोटबन्दी के लाभों पर कुछ कह पायेगी। क्योंकि जब 2016 में नोटबन्दी की गयी थी तब देश में 17 लाख करोड की करंसी चलन में थी जो 2022 में करीब 34 लाख करोड़ पहुंच गयी। करंसी का इतना फैलाव क्या प्रमाणित करता है। आज जो दो हजार का नोट चलन से बाहर किया जा रहा है इसके मुद्रण पर ही 21,000 करोड का खर्च हुआ है। उसकी भरपाई कहां से होगी यह सवाल जवाब मांगेगा। आज 2014ं के मुकाबले मंहगाई कहां पहुंची है। यह हर उपभोक्ता व्यवहारिक रूप से भोग रहा है। बेरोजगारों सारे दावों के बावजूद कहां खड़ी है इसका जवाब हर बेरोजगार युवा मांग रहा है। क्योंकि जब किसी देश की आर्थिक स्थिति अच्छी होती है तब महंगाई और बेरोजगारी से आम आदमी त्राही-त्राही नहीं करता है। कर्नाटक के चुनाव ने प्रमाणित कर दिया है की महंगाई और बेरोजगारी से त्रस्त गरीब का आंकड़ा सबसे बड़ा है। यह गरीब स्वयं इस सब का भुक्त भोगी है और सताएं बदलने का कारक बनता है।