क्या लोकतंत्र को सही में खतरा पैदा हो गया है? क्या विपक्ष को संसद में भी सरकार से तीखे सवाल पूछने का अधिकार नहीं है? क्या विपक्ष के सवालों का जवाब देने के बजाय उन्हें संसद की कार्यवाही से ही निकाल दिया जायेगा? क्या देश की सारी व्यवस्था एक कारपोरेट घराने के गिर्द ही सिमट कर रह गयी है? क्या इन सवालों को एक लम्बे समय तक टाला जा सकता है? क्या देश एक ही आदमी के ‘‘मन की बात’’ के गिर्द घूमने को बाध्य किया जा रहा है? यह सवाल और ऐसे अनेकों सवाल अदानी प्रकरण के बाद खड़े हो गये हैं। क्योंकि जो कारपोरेट घराना कुछ ही वर्ष पहले विश्व के अमीरों की सूची में 609 स्थान पर था वह जब एक दशक से भी कम समय में देश का सबसे अमीर और विश्व का दूसरा रईस बन जाये तो निश्चित है कि वह सबकी जिज्ञासा का विषय तो बनेगा ही। ‘‘महाजनो येन गतः स पन्थाः’’ का अनुसरण करते हुए हर व्यक्ति उसके पद चिन्हों पर चलने का प्रयास करेगा ही। क्योंकि इस घराने का दखल उद्योग के हर क्षेत्र में हो गया। सरकार की नीतियां इसी के अनुकूल होती चली गयी। करोना महामारी के दौरान भी ‘‘आपदा को इसी ने अवसर’’ बनाया। देश के हर राज्य में ही नहीं विश्व के दूसरे देशों में भी इसका प्रसार होता चला गया। सता का इसे पूरा सहयोग मिल रहा है यह प्रधानमंत्री की इससे सार्वजनिक नजदीकियों के चलते जन चर्चा में आ गया। इस जन चर्चा के परिणाम स्वरूप देश-विदेश के निवेशक इस घराने की कंपनियों में निवेश करने लग गये। इसकी गति से प्रभावित होकर कुछ लोग इसकी सफलता के रहस्य को भी समझने में लग गये।
इसी खोज के परिणाम स्वरूप एक रिसर्च संस्था हिंडनबर्ग की रिपोर्ट सामने आ गयी। इस रिपोर्ट ने यह खुलासा किया कि इस घराने में कई फर्जी विदेशी कंपनियों का हजारों करोड़ का निवेश है। यह कंपनियां और इनके संचालक धरातल पर मौजूद ही नही है। इनके मुख्यालय ‘‘टैक्स हैवन’’ देशों में स्थित हैं। इस घराने ने अपनी कंपनियों के शेयरों में फर्जी उछाल दिखाकर देश-विदेश के शेयर बाजार को प्रभावित किया है। यह खुलासा भी सामने आ गया कि इस धन्धे में इसके अपने परिजनों की भी सक्रिय भागीदारी है। यह पहले से ही सार्वजनिक संज्ञान में था कि 2014 के लोकसभा चुनावों में प्रचार के लिए नरेन्द्र मोदी ने गौतम अदानी के ही हेलिकॉप्टर का इस्तेमाल किया है। सरकार बनने के बाद गौतम अदानी प्रधानमंत्री के हेलीकॉप्टर में साथ रहते आये हैं। इस आश्य के फोटोग्राफ तक संसद में विपक्ष दिखा चुका है। प्रधानमंत्री के विदेशी दौरों में अकसर अदानी का साथ रहना या बाद में अदानी का उन देशों में जाना संसद में चर्चा और सवालों का विषय रहा है। सिंगापुर और बांग्लादेश में प्रधानमंत्री की सिफारिशों के बाद अदानी को ठेके मिलना सब आरोपों का विषय रहा है। लेकिन प्रधानमंत्री ने संसद में इन सवालों का जवाब नही दिया है। बल्कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी द्वारा लोकसभा में पूछे गये अठारह सवालों को उनके भाषण में ही हटा दिया गया है। हिंडनबर्ग की रिपोर्ट को देश के खिलाफ साजिश करार दिया जा रहा है। नरेन्द्र मोदी ने इस सारी बहस का रुख बदलते हुये ‘‘एक अकेला सब पर भारी’’ करार दिया है।
इस परिदृश्य में अब यह प्रकरण सर्वोच्च न्यायालय में भी पहुंच गया है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से जवाब मांगा है कि निवेशकों के निवेश की सुरक्षा के क्या उपाय हैं। आर.बी.आई. और सैबी से भी जवाब मांगा है क्योंकि सारी निगरानी एजैन्सियां अब तक खामोश बैठी हैं। जबकि अदानी समूह के शेयर लगातार गिरते जा रहे हैं। विदेशी निवेशक अपना निवेश निकाल रहे हैं। विदेशी बैंकों ने अदानी के शेयरों को बॉण्डज् के तौर पर लेने से मना कर दिया है। देश में भी एल.आई.सी., एस.बी.आई. और पी.एन.बी. सब नुकसान के दायरे में हैं। रिपोर्टों के मुताबिक दस लाख करोड़ का नुकसान हो चुका है। इन सब प्रतिष्ठानों में देश के आम आदमी का पैसा जमा है और इस पैसे का एक बड़ा हिस्सा अदानी समूह में निवेशित है जिसके शेयर लगातार गिर रहे हैं। तो क्या आम आदमी इस पर चिंतित नहीं होगा। सरकारी बैंक अदानी को ढाई लाख करोड़ का कर्ज दे चुके हैं। सरकार चौरासी हजार करोड़ का कर्ज माफ कर चुकी है। देश का यह सबसे अमीर आदमी टैक्स देने वाले पहले पन्द्रह की सूची में भी नहीं है। यह आरोप संसद में लग चुका है। अदानी पर उठते सवालों से प्रधानमंत्री और सरकार लगातार बचते फिर रहे हैं। ऐसे में क्या इस स्थिति को लोकतंत्र के लिये घातक नहीं माना जाना चाहिये? क्या सरकार का रुख एक और जन आन्दोलन की जमीन तैयार नहीं कर रहा है?