हिमाचल और गुजरात के चुनाव परिणाम जब एक ही दिन घोषित हो सकते हैं तो फिर इन चुनावों की घोषणा भी एक ही साथ क्यों नहीं हो सकती थी? यह सवाल कुछ हलकों में प्रमुखता से उभरा है लेकिन इसका कोई जवाब नहीं आया है। पोस्टल मतदान मतगणना के शुरू होने तक आ सकता है और इसमें यह आरोप लगने शुरू हो गये हैं कि पोस्टल मतदान के पात्र सभी लोगों को पर्याप्त समय पर यह सुविधा उपलब्ध नहीं करवाई गयी है। पोस्टल मतदान के लिये यह व्यवस्था नहीं हो पायी है कि यह मतदान भी जरनल मतदान के दिन ही संभव हो पाये। मतदान के दिन ईवीएम और वीवीपैट मशीनों के कई जगह सुचारू रूप से काम न कर पाने की शिकायतें भी बहुत जगहों से आयी हैं। ईवीएम की बजाये पुरानी मतपत्र व्यवस्था से ही मतदान करवाने की मांग लम्बे अरसे से उठती आ रही है। जब ईवीएम के साथ ही वीवीपैट मतदान का लिखित रिकॉर्ड उपलब्ध रहता है तो ईवीएम के परिणाम का मिलान वीवीपैट की पर्ची से क्यों नहीं करवाया जा सकता? इसमें यदि चुनाव परिणाम घोषित करने में एक या दो दिन का समय ज्यादा लग जाता है तो इसमें किसी को भी क्या आपत्ति हो सकती हैं? एक लम्बे अरसे से ईवीएम मशीनों की विश्वसनीयता पर सवाल उठते आ रहे हैं जिन्हें लगातार नजरअंदाज किया जा रहा है। उन्नीस लाख ईवीएम मशीनें चोरी हो जाने का मामला आज तक लंबित चला रहा है। चुनाव आचार संहिता की उल्लंघना पर तुरन्त प्रभाव से आपराधिक मामला दर्ज किये जाने का प्रावधान अभी तक नहीं हो पाया है। ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जो आज की चुनाव व्यवस्था को लेकर उठाए जा सकते हैं। हर चुनाव के समय यह सवाल उठने शुरू हो गए हैं।
चुनावों की निष्पक्षता सुनिश्चित करना चुनाव आयोग का काम है। चुनाव आयोग राजनीतिक दलों के सांगठनिक चुनाव सुनिश्चित करवा रहा है। चुनाव उम्मीदवारों से चुनाव खर्च का हिसाब तलब करता है। क्योंकि उम्मीदवारों के चुनाव खर्च की सीमा तय है। ऐसे में यह सवाल क्यों नहीं उठना चाहिये कि यही खर्च की सीमा राजनीतिक दलों के लिए भी क्यों न हो। क्योंकि जब राजनीतिक दल इस सीमा से बाहर रह जाते हैं तब सारा चुनाव ही धनबल का नंगा प्रदर्शन हो कर रहे जाता है। राजनीतिक दल यह चुनाव खर्च दल के सदस्यों के सदस्यता शुल्क या उनके चन्दे से नहीं जुटाते हैं। बल्कि यह धन इन दलों के पास कारपोरेट घरानों से आता है। किस कारपोरेट घराने ने किस दल को कितना धन चुनावी चन्दे के रूप में दिया है इसकी कोई जानकारी सार्वजनिक रूप से नहीं आ पायी है। क्योंकि इसके चन्दे के लिये इलैक्शन बॉण्डज जारी किये जाते हैं। यह चुनावी बॉण्डज किस कॉर्पाेरेट घराने ने कितने खरीदे और किस दल को दिये इसकी जानकारी केवल स्टेट बैंक ऑफ इंडिया और आरबीआई को ही रहती है। इन चुनावी बॉण्डज को लेकर जब मामला सर्वाेच्च न्यायालय में आया था तब इसमें चुनाव आयोग की भूमिका बहुत ही निराशाजनक रही है। जबकि इस धन की जानकारी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध रहनी चाहिये थी ताकि जनता को यह पता चल पाता कि किस घराने ने किस दल को कितना पैसा दिया है। क्योंकि दल सरकार बनने पर इन्हीं घरानों के पक्ष में नीतियां बनाते हैं आम आदमी इस पूरे सिस्टम में ‘‘दूध से मक्खी’’ की तरह बाहर निकल जाता है।
यह चर्चा और सवाल इस समय इसलिए प्रसांगिक हो जाते हैं क्योंकि इस समय सर्वाेच्च न्यायालय की संविधान पीठ में चुनाव आयोग को लेकर चर्चा चल रही है। यह सवाल पूरी बेबाकी से सामने आ गया है कि जिस संस्था पर चुनावों और उनसे जुड़ी हर प्रक्रिया की निष्पक्षता सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी हैं उसके अपने ही गठन की प्रक्रिया में निष्पक्षता को लेकर सवाल उठने लगे पड़े हैं। चुनाव आयुक्त अरुण कुमार गोयल की नियुक्ति को लेकर संविधान पीठ ने जो सवाल उठाये हैं वह आने वाले दिनों में देश के हर बच्चे की जुबान पर होंगे यह तय है। क्योंकि यह देश के भविष्य से जुड़े सवाल हैं। अब वह समय आ गया है कि जब चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्तियों के लिए एक प्रक्रिया तय हो जानी चाहिये जिसमें प्रधानमन्त्री के साथ नेता प्रतिपक्ष और सर्वाेच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की पूरी भागीदारी रहनी चाहिये। इसके लिये केवल सरकारी सेवाओं में बैठे बड़े अधिकारियों की ही पात्रता नहीं रहनी चाहिए बल्कि अन्य पक्षों से जुड़े विद्वानों को भी अधिमान दिया जाना चाहिये। आज चुनावों को धनबल और बाहुबल से मुक्ति दिलाना पहली जिम्मेदारी होनी चाहिये।