नफरती ब्यानों से हुई वस्तुस्थिति पर उभरी चिन्ताओं पर चिन्तन को लेकर सर्वाेच्च न्यायालय के जस्टिस के.एम.जोसेफ और जस्टिस हृषिकेश राय की खण्डपीठ के पास सुदर्शन टीवी द्वारा दिखाये यूपीएससी जिहाद शो और धर्म संसदों में दिये गये ब्यानों तथा कोविड महामारी के दौरान एक समुदाय विशेष को चिन्हित व इंगित करते हुए सोशल मीडिया के मंचों पर आयी टिप्पणियों पर आयी याचिकाएं निपटारे के लिये लगी हैं। शीर्ष न्यायालय ने इस पर गंभीर चिन्ता व्यक्त करते हुए यह प्रश्न उठाया है कि आखिर देश जा कहां जा रहा है? अदालत ने इस पर सरकार की मुकदर्शिता पर भी चिन्ता व्यक्त करते हुये इस संद्धर्भ में एक सख्त नियामक तंत्र गठित किये जाने पर आवश्यकता पर बल दिया है। सरकार से इस पर अपना पक्ष स्पष्ट करने को कहा है। सर्वाेच्च न्यायालय में उठे सवालों में ही कमीशन की सिफारिश और चुनाव आयोग के सुझाव भी चर्चा में आये हैं। यह भी सामने आया है कि कानून में नफरती ब्यान और अफवाह तक परिभाषित नहीं है। देश के 29 राज्यों में से केवल 14 ने ही इस पर अपने विचार रखे हैं यह सामने आने के बाद सर्वाेच्च न्यायालय ने राज्यों को अपनी राय शीर्ष अदालत में रखने के निर्देश दिये हैं। शीर्ष अदालत में यह सब घटने के बाद कुछ टीवी चैनलों ने इस मुद्दे पर सार्वजनिक बहस भी आयोजित की है। इस सारे मन्थन से क्या निकल कर सामने आता है यह तो आने वाले समय में ही पता चलेगा। लेकिन आज देश में इस तरह का वातावरण क्यों निर्मित हुआ है? केन्द्र में सत्तारूढ़ पक्ष इस पर क्यों मौन चल रहा है? उसे इससे किस तरह का राजनीतिक लाभ मिल रहा है? इस मन्थन से इन सवालों का कोई सीधा संद्धर्भ नहीं उठाया जा रहा है। जबकि मेरा मानना है कि यह सवाल इस बहस का केन्द्र बिन्दु होने चाहिये। अदालत ने भी सरकार की खामोशी पर सवाल उठाते हुए एक सख्त नियामक तन्त्र के गठन की बात की है। आज केन्द्र में वह राजनीतिक दल सत्तारूढ़ है जिसका वैचारिक नियन्त्रण आर.एस.एस. के पास है। 1947 में देश की आजादी के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने वैचारिक धरातल को विस्तार देने के लिये 1948 और 1949 में ही युवा संगठन के नाम पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का गठन करने के साथ ही हिन्दुस्तान समाचार एजेन्सी का गठन कर लिया। यह वह क्रियात्मक कदम थे जिन से आने वाले वक्त में मीडिया यूथ की भूमिका का आकलन उसी समय कर लिया गया। उसके बाद आगे चलकर इसकी अनुषंागिक इकाइयों संस्कार भारती और इतिहास लेखन प्रकोष्ठ आदि का गठन इस दिशा के दूसरे मील के पत्थर सिद्ध हुए हैं। इसी सबका परिणाम संघ के सनातकों के रूप में सामने आया। मजे की बात तो यह है कि यह स्नातक लाखों की संख्या में तृतीय वर्ष पास करके आ चुके हैं। अधिकांश राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों में शामिल हो चुके हैं लेकिन इस पाठयक्रम को लेकर चर्चा नहीं के बराबर रही है। आज के नये राजनीतिक कार्यकर्ताओं से चाहे वह किसी भी राजनीतिक दल से ताल्लुक रखते हो यदि यह पूछा जाये कि संघ का आर्थिक राजनीतिक और सामाजिक चिन्तन क्या है तो वह शायद कुछ भी न बता पायें। उनकी नजर में यह एक सांस्कृतिक संगठन है जिसकी सांस्कृतिक विरासत मनुस्मृति से आगे नहीं बढ़ती। इसी संस्कृति का परिणाम है कि आज समाज का एक बड़ा वर्ग न्यायपालिका से लेकर राजनेताओं तक हिन्दू राष्ट्र के एजेंडे में शामिल हो चुका है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के 1998 के राष्ट्रीय अधिवेशन में त्रीस्तरीय संसद के गठन का प्रस्ताव पारित होने के बाद आज हालात इन ब्यानों तक पहुंच गये हैं। स्कूलों में मनुस्मृति को पाठयक्रम का हिस्सा बनाने की बात हो रही है। क्योंकि जब गुजरात दीन्नानाथ बत्रा की किताबों को स्कूल पाठयक्रम का हिस्सा बनाया जा रहा था तब इसकी चर्चा तक नहीं उठाई गयी थी। आज संघ की विचारधारा पर जब तक सार्वजनिक बहस के माध्यम से स्वीकार्यता या अस्वीकार्यता तक नहीं पहुंचा जाता है तब तक हिन्दू राष्ट्र के एजेंडे की वकालत के लिए ऐसे नफरती ब्यानों को रोकना आसान नहीं होगा।