भाजपा के राज्यसभा सांसद डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने सर्वाेच्च न्यायालय में एक याचिका दायर करके गुहार लगाई है कि संविधान के उद्घोष से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के शब्दों को हटा दिया जाये। डॉ. स्वामी की याचिका से पहले भी मेघालय उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एस.आर. सेन दिसम्बर 2018 में यह फैसला दे चुके है कि भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित कर दिया जाना चाहिये। जस्टिस सेन के इस निर्देश के खिलाफ कुछ लोग सर्वाेच्च न्यायालय गये थे। जस्टिस गोगोई की पीठ ने मेघालय उच्च न्यायालय को नोटिस भी जारी किये थे। लेकिन बाद में जस्टिस गोगोई ने यह कहकर मामला बन्द कर दिया था कि इसमें कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। अब डॉ. स्वामी की याचिका अगर स्वीकार हो जाती है तो संविधान संशोधन का रास्ता कानूनी तौर पर साफ हो जाता है। इस से स्वतः ही देश हिन्दू राष्ट्र हो जाता है। ऐसे में बड़ा सवाल यह हो जायेगा कि इस समय देश में जो धार्मिक अल्पसंख्यक है उनका भविष्य क्या हो जायेगा? क्योंकि इस समय जो दल सत्तारूढ़ है वह लगभग मुस्लिम मुक्त है। संसद में उसके पास शायद कोई भी मुस्लिम सांसद नहीं है। शायद भाजपा शासित राज्यों में मुस्लिम विधायक भी नहीं के बराबर हैं। पहली बार है कि केंद्रीय मन्त्रीमण्डल में कोई मुस्लिम मन्त्री नहीं है। यही नहीं ऐसा पहली बार देखने को मिल रहा है कि सत्तारूढ़ दल का नेतृत्व कांग्रेस और क्षेत्रीय दल मुक्त भारत का नारा दे रहा है। सत्तारूढ़ दल व्यवहारिक रूप से अपने को मुस्लिम विरोधी कहलाने में संकोच नहीं कर रहा है। भारत बहुभाषी और बहुत धर्मी देश है यही बहुलता इसकी विशेषता है। लेकिन जब सत्तारूढ़ दल के प्रयास यह हो जायें कि वह देश में किसी भी दूसरे दल की उपस्थिति ही न चाहता हो तो और इसके लिये भ्रष्टाचार के नाम पर जांच एजेंसियों का खुला दुरुपयोग होने के आरोप लग जायें तो इससे लोकतांत्रिक व्यवस्था कैसे बची रह पायेगी? यह सवाल आने वाली पीढ़ियों के सामने एक बड़ा सवाल बनकर जवाब मांगेगा यह तय है। क्योंकि इस समय हिन्दू-मुस्लिम का मुद्दा जिस तरह से लगातार बड़ा बनाया जा रहा है उससे देश में एक बार फिर बंटवारे जैसे हालात उभरते जा रहे हैं जो कालान्तर में बहुत घातक सिद्ध होंगे यह भी तय है। देश ने आजादी के लड़ाई अंग्रेज के शासन के खिलाफ लड़ी है मुस्लिम के विरुद्ध नहीं यह इतिहास का एक नितान्त कड़वा सच है। देश का बंटवारा भी अंग्रेज को भगाने के लिये स्वीकार किया गया था। उस समय भी कुछ लोग स्वतंत्रता सेनानियों का विरोध कर रहे थे और इस विरोध के अदालती प्रमाण स्वयं डॉ. स्वामी ने देश के सामने रखे हैं। बाद में इसी लोकतंत्र में यह विरोध करने वाले भी देश के शीर्ष पदों तक पहुंचे हैं। क्योंकि विरोध के स्वर अंग्रेजों के प्रायोजित शब्द थे। लेकिन दुर्भाग्य से यही विरोध के स्वर नये कलेवर में आज फिर उठने शुरू हो गये हैं और मुस्लिम विरोध इनका बड़ा हथियार बन गया है। इस परिदृश्य में आज लोकतंत्र के लिये सही में बड़ा खतरा खड़ा हो गया है। आज यह दावा किया जा रहा है कि भारत विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुकी है। इंग्लैंड को भारत ने पीछे छोड़ दिया है। ऐसे में यह सवाल पूछा जाना आवश्यक हो जाता है कि इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश को शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे अहम क्षेत्र भी पी.पी.पी. मोड पर प्राइवेट सैक्टर को देने की नौबत क्यों आ रही है। साधारण खाद्यानों पर भी जीएसटी क्यों लगानी पड़ी है? बेरोजगारी ने इस दौरान पिछले सारे रिकॉर्ड क्यों तोड़ दिये हैं। नई शिक्षा नीति की भूमिका में यह क्यों कहना पड़ा है कि हमारे बच्चे खाड़ी के देशों में बतौर हैल्पर ज्यादा समायोजित हो पायेंगे। ऐसे दर्जनों सवाल है जो सरकारी दावों पर गंभीर प्रश्न चिन्ह उठाते हैं। क्योंकि आर्थिकी उत्पादन में बढ़ौतरी से नहीं वरन स्थापित संसाधनों को प्राइवेट क्षेत्र के हवाले करने से बड़ी है। इस परिदृश्य में यह सवाल और भी गंभीर हो जाता है कि यदि धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे शब्दों को संविधान के उद्घोष से हटाने की अदालती स्वीकृति मिल जाती है तो उसके बाद किस तरह का सामाजिक वातावरण निर्मित होगा।