बढ़ती महंगाई बेरोजगारी और गिरती अर्थव्यवस्था में....

Created on Monday, 08 August 2022 08:38
Written by Shail Samachar

पिछले दिनों जब सरकार ने सामान्य खाद्य सामग्री पर भी जीएसटी लगा दिया था तब से महंगाई और बेरोजगारी देश में एक प्रमुख मुद्दा बनकर चर्चा का केंद्र बन गयी है। जीएसटी के फैसले के बाद ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुफ्ती योजनाओं पर चिंता व्यक्त की है। बल्कि प्रधानमंत्री के बाद सर्वाेच्च न्यायालय ने भी इस पर चिंता व्यक्त करते हुए सरकार चुनाव आयोग नीति आयोग और राजनीतिक दलों से भी उनकी राय पूछी है। संसद में महंगाई बेरोजगारी और जांच एजेंसियों के बढ़ते दुरुपयोग पर विपक्ष लगातार बहस की मांग करता आ रहा है। लेकिन सरकार बहस को टालती आ रही है। सर्वाेच्च न्यायालय की चिंता के बाद संसद में भाजपा के सुशील मोदी मुफ्तखोरी की योजना पर एक प्रस्ताव लेकर आये और इस प्रस्ताव में जिस तरह से प्रतिक्रिया भाजपा सांसद वरुण गांधी ने ही व्यक्त की है वही अपने में बहुत कुछ कह जाती है। वरुण का यह सवाल कि क्या चर्चा करने वाले सबसे पहले अपनी ही सुविधाओं में कमी करने को तैयार होंगे। विधायकों सांसदों को मिलने वाली पैंशन और अन्य सुविधाएं एक अरसे से चर्चा का विषय बनी हुई हैं। विधानसभाओं और संसद को अपराधियों से मुक्त करने का प्रधानमंत्री का वायदा अभी तक अमली शक्ल नहीं ले पाया है। जबकि आज आर बी आई कर्ज की ब्याज दरें बढ़ाने को बाध्य हो गया है। आज स्थिति उस मोड़ तक आ चुकी है जहां हर समझदार व्यक्ति यह आशंका व्यक्त करने लग गया है कि देश के हालात कभी भी श्रीलंका जैसे हो सकते हैं। वरिष्ठ नौकरशाह प्रधानमंत्री को इस बारे में सचेत कर चुके हैं। आरबीआई उन राज्यों की सूची जारी कर चुका है जो श्रीलंका होने की तरफ तेजी से बढ़ रहे हैं। डॉलर के मुकाबले रुपये की लगातार गिरावट के कारण विदेशी निवेशक अपना निवेश बाजार से निकालते जा रहे हैं। लेकिन सरकार तथ्यों के विपरीत जनता को अर्थव्यवस्था के प्रति आश्वस्त करने का जितना प्रयास कर रही है उसी अनुपात में इस पर सवाल पूछने वाले सांसदों का निलंबन और राजनीतिक दलों के खिलाफ जांच एजेंसियों का इस्तेमाल बढ़ाती जा रही है। जांच एजेंसियों पर अपने विवेक का इस्तेमाल करने की बजाये सरकार के हाथों खिलौना बनने का आरोप ज्यादा लग रहा है। क्योंकि ईडी की जांच उन्हीं लोगों के खिलाफ हो रही है जो सरकार से सवाल पूछने का साहस कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के चुनावों में यह सामने आ चुका है कि एक जैन के यहां छापा मारकर कैस की बरामदगी जब हुई और यह पता चला कि यह जैन तो भाजपा का समर्थक है तो इस मामले को आयकर का मामला बताकर रफा-दफा कर दिया गया। उसके बाद सपा के समर्थक एक अन्य जैन के यहां छापेमारी की गयी और मामला बनाया गया। यही स्थिति आज हेराल्ड मामले में हो रही है। एजे सैक्शन 25 के तहत पंजीकृत कंपनी है और इस नाते ईडी के दायरे से बाहर है। विधि विशेषज्ञ लगातार यह कह रहे हैं लेकिन ई डी इसका जवाब ही नहीं दे रही है। ई डी ने जब यह सवाल पूछा कि आप हेराल्ड को जिंदा क्यों करना चाहते हैं तब यह सारा कुछ स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है कि सरकार को निष्पक्ष मीडिया मंच के आने से कष्ट हो रहा है। ऐसे दर्जनों मामले हैं जिन से यह प्रमाणित हो जाता है कि ईडी और दूसरी जांच एजेंसियां राज्यों से लेकर केंद्र तक सरकार के हाथों में कठपुतली बनकर काम कर रही हैं। इस परिदृश्य में अहम सवाल हो जाता है कि सरकार ऐसा कर क्यों रही है। इस समय वित्तीय स्थिति के कुछ आंकड़ों को यदि ध्यान में रखा जाये तो इसे समझना आसान हो जायेगा। बैंकों में आम आदमी के हर तरह के जमा पर 2014 के बाद से लगातार ब्याज दरें क्यों कम होती जा रही हैं? 2014 में जो विदेशी कर्ज 54 हजार करोड़ था वह अप्रैल 2022 तक 1,30,000 करोड़ कैसे हो गया? 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले 18.50 लाख करोड़ प्रधानमंत्री मुद्रा ऋण योजना में क्यों बांटा गया? इसके लाभार्थी कौन हैं? इसमें से क्या कोई पैसा वापस आया है? इसी संसद सत्र में यह जानकारी आयी है कि बैंकों का दस लाख करोड़ राइट ऑफ किया गया? एनपीए के लिये बैड बैंक बनाने की नौबत क्यों आयी? आज 5G स्पैक्ट्रम रिजर्व कीमत से भी कम पर क्यों बेच दिया गया? यह कुछ सामान्य और मोटे स्वाल हैं जिन पर निष्पक्षता के साथ विचार करने पर देश की वित्तीय स्थिति और आम आदमी पर उसका महंगाई तथा बेरोजगारी के माध्यम से पड़ने वाला प्रभाव समझ आ जायेगा। आम आदमी को जिस दिन यह समझ आ जायेगा तब उसके पास सड़क पर निकलने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं रह जायेगा। इसलिये इस सब से बचने के लिये जांच एजेंसियों के दुरुपयोग के अतिरिक्त और कोई साधन सरकार के पास नहीं बचा है।