मौतों की जिम्मेदारी से भागना संभव नहीं होगा

Created on Monday, 17 January 2022 08:13
Written by Shail Samachar

प्रधानमंत्री की सुरक्षा में हुई चूक नीयतन थी या संयोगवश इसकी कोई भी जांच रिपोर्ट आने से पहले ही जिस तरह की राजनीतिक इस पर शुरू हो गयी है उससे कई ऐसे सवाल उठ खड़े हुये हैं जिन्हें लंबे समय तक नजरअंदाज करना देश हित में नहीं होगा। क्योंकि यदि यह चूक नीयतम है तो उसके प्रायोजकों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए। यदि संयोगवश हुई इस चूक को अपने विरोधियों को नीचा दिखाने के लिए राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग किया जाता है तो यह और भी निंदनीय है। लोकतंत्र के लिये इससे बड़ा और कोई संकट नहीं हो सकता। इस मामले में सर्वाेच्च न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट की ही पूर्व जज जस्टिस इन्दु मल्होत्रा की अध्यक्षता में पांच सदस्यों की एक जांच कमेटी का गठन कर दिया है। इसलिए इस जांच की रिपोर्ट आने तक इस पर बहस को आगे बढ़ाना उचित नहीं होगा। लेकिन मीडिया के कुछ हिस्सो में इस प्रकरण के बाद राजनीतिक आकलनों का दौर भी शुरू हो गया। पंजाब में इस प्रकरण के बाद भाजपा अमरेंद्र गठबंधन को लाभ और कांग्रेस को नुकसान होने की बात की गयी है वास्तव में क्या होगा यह परिणाम आने के बाद ही पता चलेगा।
लेकिन इस प्रकरण के बाद जिस तरह से उत्तर प्रदेश में मन्त्रीयों और विधायकों ने भाजपा छोड़ना शुरू कर दी है उससे पूरा राजनीतिक परिदृश ही बदलना शुरू हो गया है। उत्तर प्रदेश से पहले उत्तराखंड में भी यही सब कुछ घटना शुरू हुआ था। जिन पांच राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं उनमें भाजपा के प्रभुत्व वाले यही दो राज्य हैं। ऐसी संभावनाएं उभरनी शुरू हो गई हैं कि 2014 में जिस तरह लोग कांग्रेस छोड़कर जाने लगे थे इस बार वैसा ही कुछ भाजपा के साथ घट सकता है। 2014 में जो राजनीतिक परिदृश्य अन्ना आंदोलन से निर्मित हुआ था आज वैसा ही कुछ किसान आंदोलन ने खड़ा कर दिया है। बल्कि इस आंदोलन में हुई सैकड़ों किसानों की मौत ने स्थिति को और भी गंभीर बना दिया है। फिर इस मुद्दे पर राज्यपाल सत्यपाल मलिक के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह संवाद जब सामने आया कि किसान मोदी के कारण नहीं मरे हैं। प्रधानमंत्री के इस संवाद का किसानों पर क्या असर पड़ा होगा यह अंदाजा लगाना किसी के लिये भी कठिन नहीं है। किसानों की मौत की जिम्मेदारी से सरकार भाग नहीं सकती है।
कुछ लोग किसान आंदोलन को राजनीति से प्रेरित और प्रायोजित मानते हैं इसलिए वह किसानों की मौत के लिए मोदी और उनकी सरकार को जिम्मेदार नहीं मानते हैं। इसलिए कृषि कानूनों से जुड़े कुछ बिंदुओं पर बात करना जरूरी हो जाता है। कृषि संविधान के मुताबिक राज्यों का विषय है। एन्ट्री 33 के तहत उत्पादन के भंडारण और वितरण पर केंद्र का भी अधिकार है। लेकिन अन्य मुद्दों पर नहीं। वैसे तो एन्ट्री 33 पर भी विवाद है। इस नाते केंद्र को इस में कानून बनाने का काम अपने हाथ में लेना ही गलत था। फिर यह कानून अध्यादेश के माध्यम से लाये गये। संसद में बाद में रखे गये और वहां बिना बहस के पारित किये गये। यदि इन्हें सामान्य स्थापित प्रक्रिया के तहत लाया जाता तो जैसे ही यह संसद की कार्यसूची में आते तो एकदम सार्वजनिक संज्ञान में आ जाते और इन पर बहस चल पड़ती। जैसा कि इस बार हुआ। कि जैसे ही बैंकिंग अधिनियम में संशोधन की चर्चा सामने आयी तभी बैंक कर्मचारी सड़कों पर आ गये और यह प्रस्तावित संशोधन वहीं पर रुक गया। इसलिए जिस तरीके से यह कृषि कानून लाये गये थे उससे सरकार की नीयत पर शक करने का पर्याप्त आधार बन जाता है।
फिर सरकार ने जमाखोरी और मूल्य बढ़ोतरी पर 1955 से चले आ रहे हैं अपने नियंत्रण के अधिकार को समाप्त करके किसको लाभ पहुंचाया। क्या यह कानून किसी भी आदमी के लिए लाभदायक कहा जा सकता है शायद नहीं। ऐसे में किसानों के पास आंदोलन के अतिरिक्त और क्या विकल्प था। यह कानून कोरोना काल में ही लाने की क्या मजबूरी थी। यह कानून लाने से पहले क्या हरियाणा सरकार द्वारा अदानी समूह को लॉकडाउन के दौरान स्टोरों के लिए भूमि नहीं दी गई थी । अब जब कानून वापिस लिये गये तो उसके बाद अदानी कैपिटल को स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का कृषि ऋणों के लिए पार्टनर क्यों बनाया गया। अब एसबीआई के साथ मिलकर अदानी किसानों को कृषि उपकरणों और बीजों के लिए ऋण देगा। साठ ब्रांचों वाले अदानी से तेईस सौ ब्रांचों वाले एसबीआई को व्यापार में कैसे सहायता मिलेगी। क्या यह सब सरकार की नीयत पर शक करने के लिए काफी नहीं है। क्या इस परिदृश्य में किसान आंदोलन और किसानों की मौतों की जिम्मेदारी सरकार पर नहीं आ जाती है। यह चुनाव इन्हीं सवालों के गिर्द घूमेगा यह तय है।