क्या कोरोना के नये वायरस ओमीक्रॉन के बढ़ते संक्रमण के कारण पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव कुछ समय के लिये टाल दिये जायेंगे। यह सवाल इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक आदेश के बाद चर्चा में आया हैं क्योंकि इस आदेश में चुनाव आयोग और प्रधानमंत्री से निर्देश पूर्ण आग्रह किया गया है। इस पर क्या फैसला लिया जाता है यह आने वाले कुछ दिनों में सामने आ जायेगा। लेकिन जिस तरह से ओमीक्रॉन के बढ़ने और उसी अनुपात में सरकारों द्वारा कर्फ्यू आदि के कदम उठाये जा रहे हैं इससे एक बार फिर लॉकडाउन की संभावनाएं और आशंकाएं बढ़ती जा रही हैं। पिछले 2 वर्ष से देश इस महामारी के संकट से जूझ रहा है। इस दौरान जो कुछ घटा है और सरकार ने जो कदम उठाये हैं उसके परिदृश्य में कुछ सवाल उभरते हैं जिन पर एक सार्वजनिक बहस की अब आवश्यकता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च 2020 को लॉकडाउन लगाकर इस महामारी से निपटने का पहला कदम उठाया था। लॉकडाउन की घोषणा अचानक हुई थी। लोगों की लॉकडाउन झलेने की कोई तैयारी नहीं थी। जबकि महामारी अधिनियम 1897 में यह प्रावधान है कि जब कोई बीमारी सरकार के आकलन में महामारी लगे और उससे निपटने के लिये अलग से कुछ कदम उठाने पड़े तो उसके लिए जनता को सार्वजनिक रूप से अग्रिम सूचना देनी पड़ती है। लेकिन लॉकडाउन लगाते समय कुछ नहीं किया गया। लॉकडाउन में किस तरह का नुकसान आम आदमी को उठाना पड़ा है उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है। नवम्बर 2016 में की गयी नोटबंदी से जो नुकसान आर्थिकी को पहुंचा था लॉकडाउन ने उसे कई गुना बढ़ा दिया है। इस दौरान राजनीतिक गतिविधियों के अतिरिक्त बाकी सारी आर्थिक गतिविधियां शुन्य हो गयी। 2020 में कोरोना के लिये कोई वैक्सीन या अन्य कोई दवाई बाजार में नहीं आयी। आज भी इसकी कोई दवाई उपलब्ध नहीं है। इस वर्ष जनवरी से जो वैक्सीन लगाई जा रही है वह केवल एक प्रतिरोधक उपाय है। इसकी प्रतिरोधक क्षमता भी केवल छः माह तक कारगर है। इसके बाद पुनः इसकी डोज लेनी पड़ेगी। ऐसा कब तक करते रहना पड़ेगा इसको लेकर कुछ भी स्पष्ट नहीं है। वैक्सीन की इस व्यवहारिक स्थिति के कारण ही सर्वाच्च न्यायालय में केंद्र सरकार ने एक शपथ पत्र देकर यह कहा है की वैक्सीन लगवाना अनिवार्य नहीं किया गया है। इसे एैच्छिक ही रखा गया है। 2020 में आरोग्य सेतु ऐप आया था। इसको लेकर कितने दावे किये गये थे और उन्हीं दावों के आधार पर इसे अनिवार्य बना दिया गया था। लेकिन जब एक आर.टी.आई. में इससे जुड़ी जानकारियां मांगी गयी तब ऐप को लेकर ही अनभिज्ञता जता दी गयी। इससे आम आदमी के विश्वास को कितना आघात पहुंचा है इसका अंदाजा लगाना कठिन है।
1897 में महामारी अधिनियम आने के बाद से लेकर आज तक का रिकार्ड यह बताया है कि हर दस-बारह वर्ष के अंतराल पर कोई न कोई महामारी आती रही है लेकिन इससे निपटने के इस तरह के उपाय पहली बार किये गये हैं जिनमें शुरुआत में ही यह कहा गया कि अस्पताल भी ना जायें। इस निर्देश में यह ध्यान नहीं रखा गया कि जो लोग आ.ेपी.डी. में आ रहे हैं या अस्पताल में दाखिल होकर इलाज करवा रहे हैं और अब उनका इलाज बंद हो गया है उनमें से यदि कोई संक्रमित हो जाता है तो उसका बचाव कैसे होगा। आज तक इस पर कोई अध्ययन नहीं किया गया है कि जब 24 मार्च को लॉकडाउन के कारण अस्पताल भी बंद हो गये थे तब अस्पताल आने वाले कितने लोग संक्रमित हुए और उनकी स्थिति क्या रही। जब लॉकडाउन हुआ था उसके बाद एक याचिका सर्वाच्च न्यायालय में डॉ कुनाल साहा की आई थी उसमें संभावित प्रस्तावित दवाइयों और वैक्सीन के साइड इफेक्ट को लेकर कुछ चिन्ताएं व्यक्त की गयी थी। जिनका आज तक जवाब नहीं आया है। इसके बाद कुछ वैज्ञानिकों और फिर कुछ पूर्व वरिष्ठ नौकरशाहों ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कुछ जानकारीयां इस महामारी को लेकर मांगी थी जिनका जवाब नहीं आया है। अब डॉक्टर जैकब पुलियेल की याचिका पर यह शपथ पत्र आ गया कि वैक्सीनेशन अनिवार्य नहीं की गयी है यह एैच्छिक है। लेकिन व्यवहार में जिस तरह की बंदिशों के आदेश/निर्देश सामने आ रहे हैं वह रिकॉर्ड पर आ चुकी स्थिति से एकदम भिन्न है। इस भिन्नता के कारण ही यह आशंकाएं उभर रही हैं कि कहीं इस महामारी का कोई राजनीतिक लाभ तो नहीं उठाया जा रहा है। क्योंकि जन्म और मृत्यु के आंकड़े संसद में गृह विभाग की ओर से हर वर्ष रखे जाते हैं। क्योंकि हर जन्म और मृत्यु का पंजीकरण होता है। मृत्यु के इन आंकड़ों के अनुसार पिछले कुछ वर्षों से इसमें प्रतिवर्ष दस बारह लाख की बढ़ोतरी हो रही है। 2018 में यह आंकड़ा 69 लाख था और आज भी यह 7.27 प्रति हजार है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि व्यवहार और प्रचार में कितना अंतर है।