प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विवादित कृषि कानूनों को संसद के आगामी सत्र में वापस लेने की घोषणा की है। गुरू पर्व पर यह घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री ने आंदोलनरत किसानों से घर वापसी जाने का आग्रह किया है। परंतु किसानों ने इस आग्रह को अस्वीकार करते हुए इस घोषणा के अम्ल में आने तक आंदोलन वापिस ना लेने का बात की है। इसी के साथ किसानों ने एम एस पी का वैधानिक प्रावधान किए जाने की भी मांग की है। प्रधानमंत्री ने यह घोषणा करते हुए यह क्षमा याचना भी की है कि वह इन कानूनों से होने वाले लाभ को किसानों को समझाने में असफल रहे हैं। इन कानूनों को वापस लेने की घोषणा करते हुए नरेंद्र मोदी ने यह भी कहा है कि यह कानून पूरी साफ नीयत से लाये थे और इन्हें किसानों के लिए लाभकारी मानते हैं। प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य से यह सामने आता है कि वह अभी इस फैसले को सही मानते हैं और वापस लेने की घोषणा वह बहुमत का सम्मान करते हुए कर रहे हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि अब प्रधानमंत्री ने यह मान लिया है कि आंदोलन में किसानों का बहुमत भाग ले रहा था। यह सही भी है कि देश का सारा गैर एनडीए विपक्ष इस आंदोलन का समर्थन कर रहा था और इन कानूनों को वापस लेने की मांग कर रहा था। आज भी 80% लोग देश में प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष कृषि और कृषि संबंधित कार्यों पर निर्भर हैं। इन्ही का बहुमत इन कानूनों का विरोध कर रहा था।
लेकिन आज तक अपने ही मन की बात देश को सुनाने में लगे रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस आन्दोलन की आंच तब महसूस हुई जब बंगाल हारने के बाद हिमाचल और राजस्थान में उपचुनाव भी बूरी तरह हार गये। इस हार का ही परिणाम है कि अब उत्तर प्रदेश के चुनावों के लिए नड्डा और राजनाथ जैसे नेताओं को भी दो-दो जिलों का प्रभारी बनाकर फील्ड में उतारना पड़ा है। किसान आंदोलन को असफल बनाने और बदनाम करने में सरकार और उसके समर्थकों ने क्या कुछ किया है यह किसी से छुपा नहीं है। इसी का परिणाम है कि इस आंदोलन में करीब 700 किसानों ने अपने प्राण दिए हैं। गांधीवादी सिद्धांतों पर एक वर्ष में भी अधिक देर तक चले इस आंदोलन में हिंसा भड़काने का हर प्रयास असफल रहा है। बल्कि इस आंदोलन ने आपसी भाईचारे और एकता की जो मिसाल कायम की है उसके लिए आंदोलन के नेतृत्व को सदा याद रखा जाएगा।
प्रधानमंत्री ने इस समय इन कानूनों को वापस लेने की घोषणा करके अपने सारे समर्थकों को हैरान कर दिया है। क्योंकि प्रधानमंत्री को समर्थन देने के लिए जिस तरह की भाषा और तथ्यों का प्रयोग यह लोग कर रहे थे उससे इन्हें पूरा विश्वास था कि नरेंद्र मोदी आंदोलन और उसके समर्थकों को पूरी तरह कुचल कर रख देगा। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया और मोदी को क्षमा याचना करनी पड़ी है। मोदी की इस क्षमा याचना से उनके समर्थकों को भी सबक लेने की जरूरत है उन्हें अब अपने विवेक का भी प्रयोग करने का संदेश इस क्षमा याचना में छिपा है। क्योंकि जो लोग निष्पक्षता से इन कानूनों का आकलन कर रहे थे वह जानते थे कि एक दिन इन्हें वापस लेना पड़ेगा। शैल के पाठक जानते हैं कि 5 जून 2020 को अध्यादेश के माध्यम से लाये गये इन कानूनों पर 6 जून को ही हमने लिखा था कि यह सबके लिए घातक है और वापस होंगे। हमारा यह आकलन सही सिद्ध हुआ है। इसी परिप्रेक्ष में आज फिर यह कहना आवश्यक हो जाता है कि 2014 से लेकर 2021 तक जितने भी आर्थिक फैसले लिये गये हैं उन सब का परिणाम बैड बैंक की स्थापना के रूप में सामने आया है। प्रधानमंत्री और उनके समर्थकों को यह जवाब देना होगा कि जून 2014 में हमारे बैंकों का जो एनपीए करीब ढाई लाख करोड़ था वह आज 10 खराब करोड़ तक कैसे पहुंच गया है। जिस देश के बैंकों का एनपीए 10 खरब करोड़ हो जाएगा वह बैंक कितनी देर जिंदा रह पायेंगे और इसके प्रभाव से कोई भी अछूता कैसे रह पायेगा। देश की आर्थिक स्थिति कभी भी विस्फोटक होकर सामने आने वाली है यदि पूरे देश में राज्यों से लेकर केंद्र तक मोदी का शासन भी हो जाये तो भी स्थिति से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं बचा है। इस देश का सारा आर्थिक नियंत्रण विदेशी कंपनियों, वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ और एडीबी जैसी आर्थिक संस्थाओं के पास जा चुका है। इस समय इस संद्धर्भ में एक सार्वजनिक बहस की आवश्यकता है अन्यथा देश से क्षमा याचना के लिए भी समय नहीं मिलेगा।