सरकार ने पिछले दिनों लोकतन्त्र के प्रहरीयों को सम्मानित किया है। लोकतन्त्र के यह वह प्रहरी हैं जिन्होंने पैंतालीस वर्ष पहले 26 जून 1975 को लगे आपातकाल का विरोध किया था। इस विरोध के लिये इन्हें जेलों मे डाल दिया गया था। इन पैंतालीस वर्षों में केन्द्र से लेकर राज्यों तक में कई बार गैर कांग्रेसी सरकारें सत्ता में आ चुकी हैं लेकिन इस सम्मान का विचार पहली बार आया है। इस नाते इसकी सराहना की जानी चाहिये क्योंकि असहमति को भी लोकतन्त्र में बराबर का स्थान हासिल है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि अहसमति स्वस्थ्य लोकतन्त्र का एक अति आवश्यक अंग है। लेकिन क्या आज जिन शासकों ने लोकतन्त्र के इन प्रहरीयों को चिन्हित और सम्मानित किया है वह असहमति को सम्मान दे रहे हैं? क्या आज असहमति के स्वरों को दबाकर उनके खिलाफ देशद्रोह के आपराधिक मामले बनाकर उनको जेलों में नहीं डाला जा रहा है। क्या आज मज़दूर से हड़ताल का अधिकार नहीं छीन लिया गया है। क्या आज पुलिस को यह अधिकार नहीं दे दिया गया है कि वह किसी को भी बिना कारण बताये गिरफ्तार कर सकती है। असहमति के स्वरों को मुखर करने के लिये कितने चिन्तक आज जेलों में है। दर्जनों पत्रकारों के खिलाफ देशद्रोह के मामले बना दिये गये हैं। क्या ऐसे मामलों को असहमति का भी आदर करना माना जा सकता है शायद नहीं। लेकिन आज की सत्ता में यह सबकुछ हो रहा है। उसे लगता है कि केवल उसी की सोच सही है। ऐसे में जब सरकार आपातकाल में जेल गये लोगों को लोकतन्त्र का प्रहरी करार देकर सम्मानित कर रही है तब यह सवाल पूछा जाना आवश्यक हो जाता है कि क्या आज लोकतन्त्र की परिभाषा बदल गयी है। यदि परिभाषा नहीं बदली है तो फिर आज असहमति को बराबर का स्थान क्यों नहीं दिया जा रहा है।
26 जून 1975 को आपातकाल लगा था क्योंकि तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. श्रीमति गांधी ने 12 जून को ईलाहबाद उच्च न्यायालय के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के फैसले के बाद अपने पद से त्यागपत्र नहीं दिया था। उस समय स्व. जय प्रकाश के नेतृत्व में चल रहे ‘‘समग्र क्रान्ति’’ आन्दोलन ने देश के नागरिकों से सरकार के आदेशों को न मानने के लिये सविनय अवज्ञा का आह्वान कर दिया था। इस स्थिति को टालने के लिये आपातकाल लागू करने का फैसला लिया गया। आन्दोलनकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया। नागरिक अधिकारों पर एक तरह का प्रतिबन्ध लग गया। पूरे देश में गिरफ्तारियों का दौर चला। लेकिन आपातकाल में ऐसा कोई भी फैसला नहीं आया जिससे देश की आर्थिक स्थिति खराब हुई हो। मंहगाई और जमाखोरी के खिलाफ कड़े कदम उठाये गये थे। केवल नसबन्दी का ही एक मात्र ऐसा फैसला था। जिसमें कई लोगों के साथ ज्यादतीयां हुई। बल्कि कई लोगों का मानना रहा है कि यदि नसबन्दी की ज्यादतीयां न होती तो शायद 1977 के चुनावों में भी कांग्रेस न हारती। आपातकाल में विरोध और असहमति को जिस तरह दबाया गया उसका परिणाम हुआ कि 1977 के चुनावों में कांग्रेस को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। इन चुनावों के बाद स्व. मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी। इस सरकार ने आपातकाल के दौरान हुए भ्रष्टाचार और ज्यादतीयों की जांच करवाने का फैसला लिया। इसके लिये केन्द्र में शाह कमीशन का गठन किया गया और इसी तर्ज पर राज्यों ने अपने अपने कमीशन गठित किये।। हिमाचल में जिन्द्रालाल कमीशन गठित हुआ। लेकिन केन्द्र से लेकर राज्यों तक किसी भी कमीशन कोई जांच रिपोर्ट सामने नहीं आयी है। 1980 में जनता पार्टी की सरकार टूट गयी क्योंकि शिमला के रिज पर शान्ता कुमार की पुलिस ने केन्द्र के स्वास्थ्य मन्त्री राजनारायण को गिरफ्तार कर लिया। कांग्रेस फिर सत्ता में आ गयी। क्योंकि उसके पास 1953 में बढ़ी जिमीदारी प्रथा खत्म करने और फिर राजाओं के प्रीविपर्स बन्द करने और बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने जैसे फैसलों की विरासत थी। जबकि इन फैसलों का विरोध राजगोपालाचार्य चौधरी चरण सिंह, जनसंघ के अध्यक्ष बलराज मधोक, मीनू मसानी और रूस्तमजी कावसजी कपूर जैसे नेता कर चुके थे। बैंक राष्ट्रीयकरण पर तो सर्वोच्च न्यायालय ने खिलाफ फैसला दे दिया था। जिसे श्रीमति गांधी ने 25वां संविधान संशोधन लाकर बदला था। इस तरह कांग्रेस के शासनकाल में डा. मनमोहन सिंह तक ऐसा कोई आर्थिक फैसला नहीं आया है जिससे देश की अर्थव्यवस्था पर कुप्रभाव पड़ा हो या गरीब आदमी के हित में न रहा हो।
इसके विपरीत आज मोदी शासन में नोटबन्दी से लेकर कृषि कानूनों तक हर फैसले का अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। मंहगाई और बेरोज़गारी लगातार बढ़ती जा रही है। हर ओर से यह आरोप लग रहा है कि सरकार केवल कुछ पूंजीपतियों की ही हित पोषक होकर रह गयी है। संवैधानिक संस्थानों को योजनाबद्ध तरीके से कमजोर किया जा रहा है। सरकार के फैसलों पर सवाल उठाने और पूछने वाली हर आवाज़ को देशद्रोह करार दिया जा रहा है। सीएए और एनआरसी पर केन्द्र सरकार का बंगाल और असम में अलग-अलग स्टैण्ड सामने आ चुका है लेकिन आन्दोलनों को कैसे दबाया गया यह भी किसी से छिपा नहीं है। किसान आन्दोलन भी उसी दौर से गुजर रहा है। आज के हालात को आम आदमी आपातकाल से तुलना करके देखने लग पड़ा है। यह सवाल उठने लग पड़ा है कि आपातकाल में लोकतन्त्र के प्रहरी का धर्म निभाने वालों के लिये क्या आज लोकतन्त्र और धर्म दोनों के अर्थ बदल गये हैं।