कमजोर आर्थिकी की कोख से जन्में 2020 का अन्त महामारी के जिस कड़वे सच में हो रहा है उससे 2021 के प्रति भी शंकित होना स्वभाविक हो गया है। क्योंकि अभी इस महामारी से राहत पाने के लिये जो दवाईयां सामने आ रही हैं उनमें एक से 70% और दूसरी से 95% परिणामों का ही दावा किया गया है। इस दावे से ही स्पष्ट हो जाता है कि इसके प्रयोग करने वाले हर आदमी को इससे लाभ मिलेगा ही यह तय नहीं है। ऐसे में इसका प्रयोग करने से पहले ही जो आशंका/डर सामने आ गया है। उसमें इसके प्रयोग के लिये कोई आसानी से कैसे तैयार हो पायेगा यह एक बड़ा सवाल खड़ा हो सकता है क्योंकि हरियाणा के मन्त्री अनिल विज का उदाहरण सामने हैं जो टैस्ट डोज़ लेने के बाद मेदान्ता पहुंच गये हैं। फिर इस महामारी का जो दूसरा स्टरेन सामने आया है वह पहले से भी ज्यादा घातक बताया गया है। इस तरह न चाहे ही डर का ऐसा साया सामने आ खड़ा हुआ है जिससे बाहर निकल पाना आसान नहीं लग रहा है। इस पर से आम आदमी को बाहर निकालने के सरकार और प्रशासन के शीर्ष पर बैठे हुए लोगों को अनिल विज की तरह आगे आना होगा अन्यथा यह सब निरर्थक होकर रह जायेगा। इसलिये आज प्राथमिकता यह महामारी होनी चाहिये।
2020 को कमजोर आर्थिकी की विरासत मिली है यह भी एक कड़वा सच है क्योंकि नोटबंदी और फिर जीएसटी जैसे फैसलों से जीडीपी को जो धक्का लगा था उससे निकलने के लिये 2019 तक पहुंचते पहुंचते आटोमोबाईल और रियल एस्टेट जैसे क्षेत्रों को पैकेज देने की नौबत आ गयी। लेकिन यह करने से इन क्षेत्रों को कितना लाभ मिला इसका कोई आकलन हो पाने से पहले ही कोरोना का लाकडाऊन आ गया। इस लाकडाऊन से जी डी पी को कितना नुकसान पहुंचा इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि फिर बीस लाख करोड़ का पैकेज देना पड़ा। यह बीस लाख करोड़ सही में कितना था यदि इस बहस में ना भी जाया जाये तो भी यह सच्च अपनी जगह खड़ा रह जाता है कि इस पैकेज से व्यवहारिक रूप ये कितना लाभ पहुंचा है इसका कोई आकलन नहीं हो पाया है। लाकड़ाऊन में लोगों का रोजगार छीना है और अभी तक पूरी तरह बहाल नहीं हो पाया है यह भी कड़वा सच्च है। कोरोना और लाकडाऊन से आम आदमी जितना प्रभावित हुआ है क्या उसी अनुपात में सरकार भी प्रभावित हुई है या नहीं। यह एक और बड़ा सवाल बन जाता है क्योंकि सरकार ने इस दौरान जो जो फैसले लिये हैं उनसे यह प्रभाव नहीं झलकता है।
लाकडाऊन का पहला असर नागरिकता संशोधन अधिनियम को लेकर चल रहे आन्दोलन को असफल करने के रूप में सामने आया। इसी दौरान नयी शिक्षा नीति लाई गयी जिस पर एक दिन भी चर्चा नहीं हुई। इसी अवधि में श्रम कानूनों में बदलाव किया गया और किसी मंच पर कोई बहस नहीं हुई। कृषि कानून बदले गये और किस तरह इन्हें राज्य सभा में भी पारित किया गया यह भी पूरे देश ने देखा है। इसी कारोना में बिहार विधानसभा के चुनाव हो गये। हैदराबाद नगर निगम के चुनाव में भाजपा का शीर्ष नेतृत्व चुनाव प्रचार में पहुंच गया। जम्मू- कश्मीर में हुए चुनावों को 370 को हटाने में जन समर्थन करार दिया गया जबकि यह चुनाव भाजपा बनाम गुपकार प्रचारित किये गये थे और परिणामों में भाजपा 74 और गुपकार 107 रहे हैं। अभी बंगाल के चुनावों की तैयारी चल रही है। हरियाणा में निकाय चुनाव हो गये हैं और हिमाचल में चुनावों की प्रक्रिया चल रही है। कोरोना काल में लिये गये फैसले और इस दौरान अंजाम दिये गये चुनावी कार्यक्रमों से यह सवाल देर सवेर उठना स्वभाविक है कि परदे के पीछे का सच्च क्या है। क्योंकि इसी दौरान जिस तरह से भाजपा शासित राज्यों में अन्तर्धार्मिक शादियों को लेकर कानून बनाये जा रहे हैं उससे भाजपा की प्राथमिकताओं का एक अलग ही पक्ष सामने आता है।
इस समय जो किसान आन्दोलन चल रहा है उसे असफल बनाने के लिये सरकार किस हद तक जा चुकी है इसको दोहराने की आवश्यकता नहीं है। इसके लिये सरकार अपनी चुनावी जीतों को यह सब करने के लिये अपने पक्ष में फतवा मानकर चल रही है। 2020 में देश की शीर्ष न्यायपालिका और मीडिया के प्रति जिस तरह की जनधारणा सामने आयी है उसके परिदृश्य में 2021 कैसा बीतेगा इसकी कल्पना करना भी कठिन लगता है क्योंकि जब सरकार कुछ औद्योगिक घरानों के पचास लाख करोड़ के ऋण माफ कर दे और धन की कमी पूरी करने के लिये संसाधनों के दरवाजे मुक्त हाथ से नीजिक्षेत्र के लिये खोल दे तो आकलन का हर मानक फेल हो जाता है।