प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने जब देश को संबोधित किया था तब लोगों को उम्मीद थी कि वह आम आदमी को पेश आ रही आर्थिक कठिनाईयों पर कुछ कहेंगे और कोई राहत की घोषणा करेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बल्कि यह कहकर कि लाकडाऊन खत्म हुआ है वायरस नहीं और जब तक दवाई नहीं तब तक ढिलाई नहीं। इससे आम आदमी को अपरोक्ष में और डरा दिया। प्रधानमन्त्री के इस संबोधन के बाद ही मध्यप्रदेश में उच्च न्यायालय ने पूर्व मुख्यमन्त्री कमलनाथ और वर्तमान केन्द्रीय मन्त्री तोमर के खिलाफ कोरोना निर्देशों की अनुपालना न करने के लिये एफआईआर दर्ज करने के निर्देश दे दिये। उच्च न्यायालय की इस सख्ती के बाद मुख्यमन्त्री शिव राज सिंह चौहान को दो चुनावी सभाएं रद्द करनी पड़ी और उन्होंने उच्च न्यायालय की अपील सर्वोच्च न्यायालय में करने का ऐलान भी किया। बिहार की चुनाव सभाओं में भी कोरोना निर्देशों की अनुपालना नहीं हो रही है यह पूरी तरह सामने आ चुका है। बिहार में भाजपा नेता सुशील मोदी, शाह नवाज हुसैन और राजीव प्रताप रूढी कोरोना संक्रमित पाये जाने के बाद उपचार में चले गये हैं। इस तरह प्रधानमन्त्री के संबोधन से लेकर बिहार के नेताओं के कोरोना पाजिटीव पाये जाने से इस महामारी की गंभीरता और सामने आ जाती है। इस समय पूरा देश इस महामारी से जूझ रहा है और इसके कारण पूरे देश की अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हो चुकी है। करोड़ों लोगों का रोज़गार छिन गया है। हर प्रदेश में ऐसे लोग लाखों में हैं। मोटे तौर पर हर प्रवासी मज़दूर का रोज़गार छिना है।
प्रधानमन्त्री ने अपने संबोधन में उम्मीद जताई है कि अगले वर्ष फरवरी तक इसकी वैक्सीन आ जायेगी। लेकिन यह संभावना है पक्का नहीं। कोरोना काल में पहली बार कोई विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। फिर बिहार में प्रवासी मज़दूर सबसे ज्यादा हैं। यह प्रवासी मज़दूर वह वर्ग है जिसने कोरोना-लाकडाऊन की भयानकता को स्वयं भोगा है। लाकडाऊन में यही प्रवासी मज़दूर सैंकड़ों मील पैदल चल कर घर पहुंचा है। सरकारी व्यवस्थाएं कितनी कारगर और कितनी लचर रही है इसका अनुभव इस मज़दूर से ज्यादा किसी को नहीं है। इस कोरोना और लाकडाऊन में आपसी रिश्ते सोशल डिस्टैसिन्ग के नाम पर कैसे व्यवहारिक दूरीयों में बदल गये हैं। कैसे लोग एक दूसरे की खुशी और गमी में शरीक नही हो पाये हैं यह हर आदमी ने स्वयं अनुभव किया है। कैसे अस्पतालों में हर बिमारी का ईलाज बन्द कर दिया गया और कोरोना मरीजों के ईलाज के भी कितने पुख्ता प्रबन्ध थे तथा यह ईलाज कितना मंहगा था यह सब आम आदमी ने देखा और भोगा है। गोदी मीडिया ने किस तरह से महामारी में तब्लिगी समाज़ के नाम पर मुस्लिम समुदाय के खिलाफ एकतरफा अभियान चला रखा था। यह सब आम आदमी ने देखा और भोगा है। गोदी मीडिया के प्रचार पर सरकार एक दम खामोश रहकर उसका समर्थन कर रही थी और अदालतों ने भी इस पर प्रतिबन्ध लगाने से मना कर दिया था यह सब इसी कोरोना काल में घटा है। शीर्ष अदालत ने कितने अरसे बाद प्रवासी मज़दूरों के हालात पर विचार करना शुरू किया था। यह सब आम आदमी के जहन में है। सरकार के सारे दावे और वायदे कितने खोखले साबित हुए हैं यह खुलकर सामने आ चुका है। शायद आज़ादी के बाद ऐसा पहली बार हुआ है कि महामारी और आर्थिक मार दोनों को एक साथ झेलना पड़ा है।
ऐसे संकट के काल में भी जब सरकार कानून बनाकर मज़दूर से उसका हड़ताल का हक छीन ले और किसी ने कारपोरेट घरानों का गुलाम बनाने का खेल रच दे तो उससे सरकार की नीयत और नीति दोनों एकदम समझ आ जाती है। जब आम आदमी रोज़ी रोटी के संकट से जूझ रहा हो तब चुनाव आयोग चुनावी खर्च में दस प्रतिशत की बढ़ौत्तरी कर दे तो यह समझ आ जाता है कि इस संकट में भी नेता नाम का एक वर्ग है जिसे लाभ हुआ है। ऐसे परिदृश्य में जब किसी प्रदेश की विधानसभा का चुनाव हो रहा हो तो यह कैसे माना जा सकता है कि इसी व्यवस्था के हाथों पीड़ित और प्रताड़ित बेरोज़गार होकर बैठा प्रवासी मज़दूर उसी व्यवस्था को अपना समर्थन देकर फिर से सत्ता सौंप देगा। आज बिहार के चुनाव में जो हर रोज़ तपस्वी यादव और राहुल की सभाओं में भीड़ बढ़ रही है वह आदमी की पीड़ा का प्रमाण है शायद सत्तापक्ष को भी पटना से लेकर दिल्ली तक यह बात समझ आ गयी है कि आम आदमी अब उससे दूर हो चुका है। इसलिये पहले पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने नागरिकता अधिनियम को लागू करने की बात की। शायद यह उम्मीद थी कि नागरिकता पर उभरा आन्दोलन जो लाकडाऊन की आड़ में बन्द करवाया गया था फिर से उभर जायेगा और उससे नये सिरे से धु्रवीकरण की राह आसान हो जायेगी। लेकिन ऐसा नही हो पाया। इसीलिये अब वित्तमन्त्री सीता रमण को यह ऐलान करना पड़ा कि बिहार में कोरोना वायरस का वैक्सीन मुफ्त में जनता को उपलब्ध करवाया जायेगा। वित्तमन्त्री की इस घोषणा का अर्थ है कि आप बिमार आदमी को यह कह रहे हैं कि पहले तुम मेरा वोट देकर समर्थन करो और मैं तुम्हारा मुफ्त में ईलाज करूंगा। महामारी से तो पूरा देश पीड़ित है हरेक की वित्तिय स्थिति प्रभावित हुई है। ऐसे में क्या हर आदमी को वैक्सीन की उपलब्धता बिहार की तर्ज पर मुफ्त में नहीं की जानी चाहिये। यदि इस समय भाजपा विपक्ष मे होती तो ऐसे ब्यान पर सरकार संकट में आ जाती। चुनाव आयोग से लेकर शीर्ष अदालत तक सब पर इसका संज्ञान लेने का दवाब बना दिया जाता। वित्तमन्त्री का यह ऐलान राजनीतिक शुचिता के सारे मानदण्डों के खिलाफ है और इसे हताशा का ही परिणाम माना जा रहा है। इससे चुनाव आयोग की निष्पक्षता भी सवालों के घेरे में आ खड़ी होती है।