सरकार की नीतियों का परिणाम है जीडीपी की गिरावट

Created on Tuesday, 20 October 2020 11:08
Written by Shail Samachar

आईएमएफ की रिपोर्ट के मुताबिक इस वर्ष भारत की जीडीपी शून्य से 10.9% नीचे रहेगी और देश का कर्जभार जीडीपी का 90% हो जायेगा। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत प्रति व्यक्ति आय में बंगलादेश से भी नीचे चला गया है। जबकि 2014-15 तक हम बंगलादेश से करीब 45% अधिक थे जीडीपी की इस व्यवहारिक स्थिति से स्पष्ट हो जाता है कि देश की अर्थव्यस्था पांच ट्रिलियन डालर होने का जो सपना परोसा गया था उसके कई दशकों तक पूरा होने की कोई संभावना नही है। जीडीपी का शून्य से 10.9% नीचे रहने का अर्थ है कि आम आदमी जो खरीददारी करता था उसमें करीब 20 लाख करोड़ की कमी आ जायेगी। इस कमी का असर उत्पादन के हर क्षेत्र पर पड़ेगा और उससे उसी अनुपात में रोज़गार पर भी प्रभाव पड़ेगा। इस प्रभाव के कारण मंहगाई बढ़ेगी और इसका प्रभाव बाज़ार में आने भी लग पड़ा है। जो कारोबार लाकडाऊन के कारण बन्द हो गये थे वह अब फिर से शुरू हो गये हैं लेकिन इनमें अब 30% लेबर कम कर दी गयी है और जो वापिस आये उनके वेतन में भी 30% की कमी कर दी है। जो बाज़ार अब अनलाक में खुला है उसमें कारोबार अभी 50% तक ही आ पाया है। वस्तुस्थिति से आईएमएफ का आकलन पूरी तरह मेल खाता है।
अब सवाल यह उठना है कि क्या जीडीपी की इस गिरावट का कारण कोरोना महामारी ही है या यह गिरावट नोटबन्दी के फैसले से ही शुरू हो गयी थी जो कोरोना काल के कारण अब खुलकर सामने आ गयी। नोटबन्दी एक गलत फैसला था इसे अब आरबीआई के पूर्व गवर्नर उर्जित पटेल ने भी मान लिया है जिनके समय में नोटबन्दी लागू की गयी थी। पटेल ने माना है कि नोटबन्दी में नौ लाख करोड़ का घपला हुआ। नोटबन्दी से रियल एस्टेट और ओटो मोबाईल दो क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित हुए थे। इन्हें उबारने के लिये आर्थिक पैकेज भी दिये गये और यह सब कोरोना काल से पहले ही हो गया था। इसी से स्पष्ट हो जाता है कि आर्थिक मंदी बहुत पहले शुरू हो गयी थी। आज तो स्थिति यहां तक पहुंच गयी है कि केन्द्र के पास राज्यों को उनके हिस्से का पैसा देने में भी कठिनाई आ रही है। राज्यों को कर्ज लेने की राय दी जा रही है। खर्चे कम करने के लिये सरकार के बार-बार के निर्देशों के बावजूद नये कर्ज देने में असमर्थता व्यक्त कर रहे है। चक्रवृद्धि ब्याज तक मुआफ नही किया गया मामला शीर्ष अदालत तक जा पहुंचा है। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से साफ कहा है कि यह उसके हाथ में है कि लोग दिवाली कैसे मनायें। बहुत सारी योजनाएं पहली अक्तूबर सक ही बंद कर दी गयी है। लेकिन इसी सबके बीच एक बड़ा सच यह भी है कि जब सरकार आर्थिक मंदी का सामना कर रही थी तब इसी देश के अंबानी जैसे बड़े कारपोरेट घरानो की सम्पति इन्ही कानूनों के सहारे बहुत तेजी बढ़ती जा रही थी। एक बार के कानूनों से सरकार तो गरीब और कर्ज में डुबती जा रही थी लेकिन अंबानी कर्ज मुक्त होकर नम्बर वन बनते जा रहे थे। इस परिप्रेक्ष में यह समझना आवश्यक हो जाता है कि ऐसा कैसे संभव हुआ? क्या जानबूझ कर पूरी सोच के साथ ऐसे नियम कानून बनाये गये जिनका लाभ कारपोरेट घरानों को मिले। आज जिस तरह से कृषि उपज कानूनो और श्रम कानूनों को बदला गया है उसका लाभ किसान और मजदूर की बजाये सिर्फ उद्योगपतियों को मिलेगा। एक उपज एक बाज़ार के नाम पर मूल्य नियन्त्रण हटाना और भण्डारण की छूट देने से किसी भी उपभोक्ता का भला नही होगा। इस समय कोरोना काल में करीब 14 करोड़ लोगों का रोज़गार छिन गया जिसकी निकट भविष्य में भरपाई संभव नहीं लगती है। कोरोना का डर अपनी जगह बना ही हुआ है। ऐसे में सारी कारोबारी गतिविधियों को फिर से अपने पुराने स्वरूप में आने में वक्त लगेगा क्योंकि समाज के एक बड़े हिस्से के पास पैसा है ही नहीं। आज केवल सरकार से नियमित वेतन और पैन्शन लेने वाला ही अपने को कुछ हदतक सुरक्षित मान सकता है। इनकी संख्या कुल आबादी का 15% भी नही है। इनके साथ बड़े छोटे उद्योगपतियों को भी जोड़ दिया जाये तो यह सारा आंकड़ा 30% से आगे नहीं बढ़ता है। इसका अर्थ है कि समाज के करीब 70% जनसंख्या असुरक्षित है। इस 70% में नये सिरे से व्यवस्था के प्रति विश्वास पैदा करना एक बड़ी चुनौती है। इसी अविश्वास के कारण हम बंग्लादेश और पाकिस्तान से भी पिछे जाते नज़र आ रहे है।
इस परिदृश्य में यह और बड़ा सवाल खड़ा होता है कि जब मनमोहन सिंह के कार्यकाल में अर्थव्यवस्था ठीक से चल रही थी तो फिर मोदी के छः वर्षों में ऐसी बदत्तर हालत क्यों और कैसे हो गयी? आज आम आदमी का उच्च न्यायपालिका और मीडिया पर से भी भरोसा खत्म होता जा रहा है। यदि इन सवालों के परिदृश्य में बीते छः वर्षों का आकलन किया जाये तो सामने आता है कि जिन बड़े उद्योग घरानों ने इस दौरान बैंको से बड़ा कर्ज लिया उसे वापिस नहीं किया और दस लाख करोड़ ज्यादा का एनपीए हो गया। उद्योगपति सरकार के सामने-सामने देश छोड़कर चले गये और सरकार गो रक्षा, लव जिहाद, आरक्षण के खिलाफ ब्यान देने, तीन तलाक खत्म करने और नागरिकता कानून में संशोधन करने और उससे उपजे आन्दोलन को दबाने के कार्यक्रमों में लगी रही। 2014 का चुनाव भ्रष्टाचार और कालेधन की वापसी के नाम पर जीत लिया। 2019 का चुनाव सरकारी कोष से कुछ वर्गों को राहत देने और हिन्दु राष्ट्र के ऐजैण्डे को आगे बढ़ने और सरकार की नीतियों पर सवाल उठाने वालों के देशद्रोही करार देने के नाम पर जीत लिया। आज भी बिहार में यह कहा जा रहा है कि यदि भाजपा गठबन्धन उभरता है तो इस हार पर पाकिस्तान में जश्न मनाया जायेगा। भाजपा और सरकार के हर काम में हिन्दु -मुस्लिम का भेद स्वतः उभर कर सामने आ जाता है। भाजपा शासन में एकदम यह प्रचारित हो जाता है कि हिन्दु खतरे में है। भाजपा अपनी सोच में हिन्दु-मुस्लिम ऐजैण्डे से बाहर निकल ही नहीं पाती है। देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करना कभी उसकी प्राथमिकता नहीं रही। बल्कि महत्वपूर्ण सरकारी साधनों को विनिवेश के नाम पर प्राईवेट सैक्टर के हवाले करना ही उसका ऐजैण्डा रहा है। इसी ऐजैण्डे के परिणाम स्वरूप विदेशी कंपनीयां सैंकड़ो की संख्या में देश में बैठ गयी है। आज जीडीपी की गिरावट को रोकने के लिये कर्ज लेने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं बचा है। यह कर्ज देने वालों की शर्तों पर मिलेगा लेने वालों की शर्तों पर नहीं और यही देश के लिये सबसे घातक सिद्ध होगा।