सर्वोच्च न्यायालय ने तबलीगी जमात के मामले में सुनवाई करते हुए कहा है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी का सबसे ज्यादा दुरूपयोग हुआ है शीर्ष अदालत ने यह टिप्पणी केन्द्र सरकार के उस स्टैण्ड पर की थी जिसमें कहा गया था कि तबलीगी जमात को लेकर दायर की गयी याचिकाएं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का गला घोंटने का प्रयास है। तबलीगी जमात का अधिवेशन दिल्ली के निजामुद्दीन मरकज में मार्च में हुआ था। इस अधिवेशन की समाप्ति के साथ ही लाकडाऊन लागू हो गया था। यातायात के सारे साधन बन्द हो गये और इसी कारण से यह लोग अपने-अपने घरों को वापिस नहीं जा पाये। जब वापिस नहीं जा पाये तो मरकज़ में इकट्ठे रहना पड़ा। इस तरह इकट्ठे रहना लाकडाऊन के नियमों का उल्लंघन बन गया। यह लोग मुस्लिम समुदाय से थे इसलिये इनके खिलाफ हर तरह का प्रचार शुरू हो गया। मीडिया ने कोरोना का कारण ही इन लोगों को बना दिया। कोरोना बम्ब की संज्ञा तक दे दी गयी। तबलीगी के प्रमुख मौलाना साद के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज कर लिया गया। पूरे समाज में मुस्लिम समुदाय को नफरत का पात्र बना दिया गया और यह काम किया मिडिया ने। मीडिया के इस नफरती प्रचार पर रोक लगाने के लिये शीर्ष अदालत में छः अप्रैल को ही एक याचिका दायर हो गयी। लेकिन तब सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रचार पर यह कहकर रोक लगाने से इन्कार कर दिया कि ऐसा करना प्रैस की आजा़दी का गला घोंटना होगा। परन्तु अब यह मामला सुनवाई के लिये आया तब केन्द्र सरकार ने भी इन याचिकाओं को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर हमला करार दिया। लेकिन अब शीर्ष अदालत ने केवल इस तर्क को खारिज ही किया बल्कि केन्द्र सरकार को गंभीर लताड़ भी लगायी। शीर्ष अदालत की यह लताड़ उस सबका परिणाम है जो 24 मार्च से लेकर अब तक कोरोना काल में घटा है। क्योंकि तबलीग को लेकर इस दौरान कुछ उच्च न्यायालयों ने जो फैसले दिये हैं उससे सारी धारणाएं ही बदल गयी हैं। हरेक ने इसे मीडिया का गैर जिम्मेदाराना व्यवहार करार दिया है।
इसी दौरान फिल्म अभिनेता सुशान्त सिंह राजपूत की मौत का मामला आ गया। इस मौत को आत्महत्या की बजाये हत्या करार दिये जाने लगा इसके तार ड्रग माफिया से जुड़े होने के खुलासे होने लगे। देश की सारी जांच एजैन्सीयां इसी मामले की जांच मे लग गयी। ड्रग्ज़ के लिये कुछ लोगों की गिरफ्तारियां तक हो गयी। पूरे मामले को बिहार, महाराष्ट्र प्रौजैक्ट किया जाने लगा। अभिनेत्री कंगना रणौत ने तो यहां तक कह दिया कि यह हत्या का मामला है और इसके सबूत उसके पास हैं। यदि वह अपने आरोपों को प्रमाणित नही कर पायेंगी तो पद्मश्री लौटा देंगी। न्यूज चैनलों से अन्य सारे मुद्दे गायब हो गये। केवल सुशान्त सिंह राजपूत और कंगना रणौत ही प्रमुख मुद्दे बन गये। केन्द्र ने कंगना को वाई प्लस सुरक्षा प्रदान कर दी। हिमाचल भाजपा ने तो कंगना के पक्ष में हस्ताक्षर अभियान प्रदेशभर में छेड़ दिया। लेकिन इसी बीच जब एम्ज़ की विशेषज्ञ कमेटी ने सुशान्त सिंह की मौत को हत्या की बजाये आत्महत्या करार दिया तब इस मामले का भी पूरा परिदृश्य ही बदल गया। इस बदलाव पर एनबीएसए भी गंभीर हुआ। उसने आजतक, एबीपी इण्डिया टीवी और न्यूज 18 जैसे कई चैनलों को सुशान्त राजपूत केस में गलत जानकारीयां देने तथ्यों को छुपाने और तोड़ मरोड़ कर पेश करने जैसे कई गंभीर आरोपों का दोषी पाते हुए कुछेक को एक-एक लाख तक का जुर्माना लगाया है। एनबीएसए न्यूज चैनलों का अपना एक शिखर संगठन है। इस संगठन द्वारा भी इन चैनलो को देाषी करार देना अपने में ही मीडिया की विश्वसनीयता पर एक बड़ा सवाल बन जाता है। फिर इसी बीच मुंबई पुलिस न्यूज चैनलों के टीआरपी घोटाले का अनाचरण कर देती है इसमें चार लोगों की गिरफ्तारी हो जाती है। रिपब्लिक टीवी को भी इस प्रकरण में नोटिस जारी किया गया है। इस तरह मीडिया के इन सारे मामलों को अगर इकट्ठा करके देखा जाये तो निश्चित रूप से यह बड़ा सवाल जवाब मांगता है कि क्या इस चैथे खम्बे के सहारे लोकतन्त्र कितनी देर खड़ा रह पायेगा?
मीडिया पर उठी यह बहस अभी शुरू ही हुई है कि आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमन्त्री जगन रेड्डी ने सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश को एक छः पन्नो का पत्र भेजकर शीर्ष अदालत के ही दूसरे वरिष्ठतम जज रम्मन्ना के खिलाफ आरोप लगाकर लोकतन्त्र के एक और खम्बे न्यायपालिका को हिलाकर रख दिया है। जगन रेड्डी स्वयं आपराधिक मामले झेल रहे हैं और जस्टिस रम्मन्ना ने ही माननीयों के खिलाफ देशभर में चल रहे मामलों को प्राथमिकता के आधार पर शीघ्र निपटाने के आदेश पारित किये हैं। ऐसे में रेड्डी में इस पत्र को न्यायपालिका बनाम व्यवस्थापिका में एक बड़े संघर्ष का संकेत माना जा रहा है। क्योंकि रेड्डी स्वयं मुख्यमन्त्री हैं और उनके कहने लिखने का भी एक अर्थ है। दिल्ली उच्च न्यायालय के भी एक जज के खिलाफ पूर्व मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह, आनन्द चैहान के माध्यम से ऐसे ही आरोप एक समय लगा चुके है। तब इसकी ओर ज्यादा ध्यान आकर्षित नही हुआ था और आज यह पत्र संस्कृति सर्वोच्च न्यायालय में दस्तक दे चुकी है। कार्यपालिका और व्यवस्थापिका तो बहुत अरसा पहले ही जन विश्वास खो चुकी है और अब मीडिया तथा न्यायपालिका की अस्मिता भी सवालों के घेरे में आ खड़ी है। ऐसे में यदि समय रहते लोकतन्त्र के इन खम्बों पर उठते सवालों के जवाब न तलाशे गये तो यह तय है कि लोकतन्त्र नहीं बच पायेगा।