घातक है आपदा को अवसर मानने की मानसिकता

Created on Monday, 25 May 2020 13:39
Written by Shail Samachar

 

प्रधानमन्त्री ने जो 20 लाख करोड़ का राहत पैकेज  घोषित किया है उसका विस्तृत ब्योरा वित्तमन्त्री ने पांच पत्रकार वार्ताओं के माध्यम से देश के सामने रखा है। इस ब्योरे में एक तथ्य तो यह सामने आया है कि आर बी आई ने जो 9,94,403 करोड़ के पैकेज इस घोषणा से बहुत पहले ही जारी कर रखे थे वह भी इस 20 लाख में फिर से जोड़ दिये गये हैं। इस तरह यह घोषणा केवल 11,02,650 करोड़ की ही रह जाती है। इस 20 लाख की घोषणा मेें यह दावा किया गया था कि यह राहत जीडीपी का 10% है जबकि रेटिंग ऐजैन्सी फिच्च के मुताबिक यह राहत 10% न होकर केवल 1.8% ही है। प्रधानमन्त्री ने जब 20 लाख करोड़ की घोषणा की थी तब उन्होने अपने ब्यान में यह भी देश को बताया था कि कोरोना आपदा के बाद ही यहां पर पीपीई किट्स का निर्माण शुरू हुआ है। जबकि इस आपदा से पहले ही भारत से यह किट्स निर्यात किये जा रहे थे और यह निर्यात अब 24 मार्च के बाद बन्द हुआ है और सभी इसे जानते हैं। ऐसे में प्रधानमन्त्री की पीपीई किट्स और 20 लाख करोड़ के आंकड़े को लेकर देश के सामने रखी गयी जानकारियां तथ्यों के आधार पर सही नही हैै। स्वभाविक है कि प्रधानमन्त्री को ऐसी जानकारी प्रशासन की ओर से ही दी गयी होगी और उन्होने इसे देश के सामने वैसे ही रख दिया। ऐसी आपदा के समय पर भी जब देश के  सामने तथ्यहीन जानकारियां रखी जायेंगी तो उसका सीधा प्रभाव प्रधानमन्त्री की व्यक्तिगत छवि पर पडेगा और यह संदेश जायेगा कि या तो प्रधानमन्त्री को प्रशासन की ओर से सही तथ्य ही उपलब्ध नही करवाये जा रहे हैं या वह जनता को बहुत ही हल्के से ले रहे हैं। लेकिन यह दोनों ही स्थितियां देश और प्रधानमंत्री के लिये भी अच्छी नही हैं।
इस समय तात्कालिक आवश्यकता तो उस प्रवासी मज़दूर की है जो सड़कों पर है। क्योंकि उसके पास घर पहुंचने का कोई भी साधन नही है। उसे तो तत्काल उसके हाथ में नकद पैसा चाहिये था और वह ही उसे नही दिया गया।  इसमें तो राहत के नाम पर भविष्य की योजनाओं का एक सपना दिखाया गया है जो इस समय उसके किसी काम का नही है। इससे हटकर भी यह राहत का पैकेज भविष्य के लिये आर्थिक सुधारों की एक रूप रेखा है। इसमें भी जिस तरह से हर क्षेत्र में प्राईवेट सैक्टर को आमन्त्रित किया गया है उससे यह लगता है कि सरकार इस समय राहत उपायों से ज्यादा भविष्य के आर्थिक सुधारों की रूप रेखा तैयार करने में लगी है। यह प्रस्तावित आर्थिक सुधार देश की आवश्यकता है या नहीं इस पर एक व्यापक सार्वजनिक बहस की आवश्यकता होगी। क्योंकि जिस देश में जनसंख्या जितनी अधिक होगी वहां पर सबसे पहले हर पेट को भरपूर भोजन की आवश्यकता है। इसके बाद कपड़ा और मकान तथा शिक्षा और स्वास्थ्य आते हैं। आज भी इस देश के 20 लाख से अधिक बच्चे सड़कों पर हैं जिन्हे भोजन तक उपलब्ध नही है। इन्हीं लोगों के लिये सामुदायिक किचन की व्यवस्था करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर हुई थी। जिस पर राज्य सरकारों ने समय पर अदालत में जवाब तक दायर नही किया और इसके लिये शीर्ष अदालत में जुर्माना तक भरा। हिमाचल भी जुर्माना भरने वाले प्रदेशों में शामिल है। इससे शासन और प्रशासन की संवदेनशीलता का पता चल जाता है। आज प्रवासी मज़दूरों की सहायता के लिये सरकारों की बजाये आम जनता इसी संवदेनशीलता के कारण ज्यादा सामने आयी है। इसलिये आज की पहली चिन्ता तो यह होनी चाहिये कि हर हाथ को काम कैसे सुनिश्चित हो पायेगा। क्योंकि यदि काम ही नहीं होगा तो उसे रोटी नसीब नही होगी और रोटी के अभाव में हिंसा ही उसके पास एक मात्र विकल्प रह जायेगा। लेकिन सरकार की प्राथमिकता शायद यह सब नही है वह तो इस आपदा को सुधारो का एक अवसर मानकर चल रही है।
 आपदा को अवसर मानने की मानसिकता का परिणाम है कि सरकार हर क्षेत्र में प्राईवेट सैक्टर को आमन्त्रित कर रही है। इस आमन्त्रण के लिये सरकारी उपक्रमों को विनिवेश के लिये खोल दिया गया है। जबकि हर प्रधानमन्त्री के काल में सरकारी उपक्रम जोडे गये। 1952 के नेहरू काल से लेकर डा.मनमोहन सिंह के काल तक जो 195 सरकारी उपक्रम खड़े किये गये हैं उन्हें बनाने में हर प्रधानमन्त्री ने योगदान दिया है। लेकिन इन उपक्रमों को बेचने का सिलसिला अब मोदी काल में शुरू हुआ है। अब तक 2,79,619 करोड़ विनिवेश से कमा लिये गये हैं और दो लाख करोड़ तो 2020-21 के बजट में लक्ष्य ही रखा गया है। हो सकता है कि आपदा के चलते यह लक्ष्य और बढ़ा दिया जाये। सबसे बड़ी बात तो यह है कि यही आरएसएस एक समय स्वदेशी जागरण मंच के माध्यम से एफडीआई का विरोध करता था परन्तु आज रक्षा उत्पादन में भी 74% एफडीआई के फैसले पर एकदम खामोश बैठा है। इससे यह सवाल उठता है कि क्या संघ के विचारक तब सही थे या आज सही हैं। क्योंकि दोनों ही समय में ठीक होना संभव नही है। आज सबसे गंभीर पक्ष तो यह है कि सरकार ने शिक्षा और स्वास्थ्य में प्राईवेट सैक्टर के लिये और छूट दे दी है। इस महामारी के संकट में जब प्राईवेट सैक्टर के अस्पतालों को कोविड का टैस्ट मुफ्त करने  के लिये कहा गया था तब इसका कितना विरोध इन्होने किया था यह सबके सामने है। भविष्य में भी इनका सहयोग इसी तरह रहेगा यह तय है। ऐसे में यह स्वभाविक है कि प्रवासी मज़दूरों की शक्ल में देश की आबादी का जो आधा भाग सामने आया है इस वर्ग को इस प्राईवेट क्षेत्र द्वारा संचालित स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी आवश्यकताओं की आपूर्ति में कोई सहयोग नही मिल पायेगा। लेकिन डिजिटल भारत का सपना परोसने वाली सरकार के सामने तो यह मज़दूर वर्ग कहीं है ही नही। इसकी आवश्यकता तो केवल वोट के लिये है जो किसी भी नये नारे के हथियार से हथिया लिया जायेगा।