नागरिकता संशोधन अधिनियम को लेकर देश के हर राज्य में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गये हैं। कई जगह इन प्रदर्शनों में हिंसा भी हो रही है। इस हिंसा के परिणाम स्वरूप कुछ लोग मारे भी गये हैं और सार्वजनिक संपति को नुकसान भी पहुंचा है। प्रदर्शनकारी इस अधिनियम को वापिस लेने की मांग कर रहे हैं। अधिनियम को देश के संविधान की मूल भावना के खिलाफ माना जा रहा है। हमारा संविधान धर्मनिरपेक्षता पर आधारित है जबकि यह अधिनियम पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के इन अल्पसंख्यक हिन्दु, सिक्ख, पारसी, जैन, बौद्ध तथा ईसाई समुदायों के लोगों को भारत की नागरिकता देनेे का प्रावधान करता है जिनके साथ वहां धर्म के आधार पर प्रताड़ना हुई हो। इस प्रताड़ना में अन्य धर्मो के लोगों को छोड़ दिया गया है। यही नही इनमें अन्य पड़ोसी देशों श्रीलंका, वर्मा, मयंमार और नेपाल को तो पूरी तरह छोड़ा दिया गया है। इस छोड़ने को संविधान की समानता की धारणा के खिलाफ माना का रहा है और इस पर उठते सवालों का कोई जवाब नही दिया जा रहा है। इसी के साथ संशय का एक बड़ा कारण एनआरसी है जिसके अनुसार सारे घुसपैठीयों को देश से बाहर किया जायेगा। आसाम में एनआरसी के तहत उन्नीस लाख घुसपैठीये चिन्हित हुए हैं। इनमें जो हिन्दु, सिक्ख, पारसी, बौद्ध, जैन और ईसाई होंगे वह तो संशोधित नागरिकता अधिनियम के दायरे में आने से नागरिकता पा जायेंगे दूसरे नही। उत्तर में यही सबसे बड़ा मुद्दा है इसको लेकर बवाल मचा हुआ है। एनआरसी पूरे देश में लागू किया जायेगा। गृहमंत्री अमितशाह के बाद अब भाजपा के कार्यकारी अध्यक्ष जगम प्रकाश नड्डा ने भी इसकी घोषणा कर दी है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि एनआरसी और संशोधित नागरिकता अधिनियम दोनों का आपरेशन एक साथ चलेगा। इससे और स्पष्ट हो जाता है कि गैर हिन्दुओं को बड़े ही रणनीतिक तरीके से कालान्तर में देश से बाहर कर दिया जायेगा। नड्डा-शाह के ब्यानों से भाजपा की नीयत और नीति दोनों साफ हो जाती हैै।
इस समय देश में करोड़ों की संख्या में गैर हिन्दु हैं। जो वातावरण एनआरसी और संशोधित नागरिकता अधिनियम से देश में बन गया है क्या उसको सामने रखते हुए इन करोड़ों गैर हिन्दुओं की आशंका एकदम आधारहीन कही जा सकती है? आसाम में राष्ट्रीय रजिस्ट्रर से बाहर हुए लाखों लोगों को बंग्लादेशी कहा जा रहा है। बंग्लादेश ने ऐसे लोगों की अधिकारिक सूची भारत से मांगी है। यदि कल को बंग्लादेश भी ऐसे लोगों को अपने यहां से आया हुआ मानने से इन्कार कर देता है तो उसका अन्तिम परिणाम क्या होगा? क्या यह एक चिन्ता और चिन्तन का विषय नही बन जाता है। अभी संशोधित नागरिकता अधिनियम की प्रक्रिया तय करने वाले नियम बनने है। यह स्पष्ट होना है कि धार्मिक प्रताड़ना तय करने का पैमाना क्या होगा? इसके लिये कानूनी प्रक्रियाएं क्या होंगी? यह सब कुछ अभी स्पष्ट होना बाकि शेष है। संसद में जब इस पर बहस चल रही थी तब इसका विरोध कर रहे सांसदो की अपतियां भी इसी तर्ज पर थी। इस सबको बहुमत के तर्क से नकार दिया गया। अब सर्वोच्च न्यायालय में भी उसके पास आयी याचिकाओं पर तब तक सुनवाई न करने की बात की है जब तक कि प्रदर्शनों में हिंसा नही रूक जाती है। सिद्धान्त रूप में यह तर्क सही है क्योंकि हिंसा कहीं भी स्वीकार्य नही हो सकती लेकिन जब संसद में विरोध के तर्काें को नकार दिया गया तो स्वभाविक है कि संसद के बाहर भी उन्हे आसानी से नही सुना जायेगा। फिर जब एनआरसी को लेकर यह कहा गया था कि पूरे देश में इसे लागू करने से पूर्व सबको सुना जायेगा तो फिर इस आन्दोलन के बीच संगठन के शीर्ष पर बैठे नड्डा जैसे नेता के ब्यान का क्या अर्थ लगाया जाये। क्या ऐसे ब्यान आग में घी डालने का कारक नही बनेगे।
इस वस्तुस्थिति को सामने रखते हुए यह सवाल उठता है कि आन्दोलनकारी प्रधानमन्त्री और उनकी पूरी सरकार के आश्वासनों पर विश्वास क्यों नही कर रहे है? इसके लिये शायद यही लोग जिम्मेदार है क्योंकि 2014 से लेकर आज तक जो वायदे किये गये उनमें से पूरे क्या हुए। अच्छे दिन और पन्द्रह लाख का परिणाम है कि मंहगाई और बेरोजगारी आज शिखर पर है। जीडीपी 5% से नीचे आ गया है। कमाई वाले सारे उपक्रमों को प्राईवेट सैक्टर के हवाले किया जा रहा है। स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे क्षेत्रों का बजट हर वर्ष घटता जा रहा है। सरकार की हर बड़ी योजना का लाभार्थी अंबानी अदानी होता जा रहा है। फास्ट टैग जैसी योजना से भी लाखों करोड़ का लाभ इन उद्योग घरानों को दिया जा रहा है सारे आंकड़े बाहर आ चुके हैं। जब सरकार जनता का ध्यान बांटने के लिये हर रोज कुछ नया मुद्दा लेकर आती रहेगी तो क्या वह युवा जिसका भविष्य दाव पर लगा हुआ है वह इस सबके निहित मंतव्य को नही समझेगा? जब इस युवा की सरकार बनाने में अहम भूमिका रही है तब इसे सरकार को समझने की समझ भी आने लगी है। क्योंकि भव्य राम मन्दिर के निर्माण और तीन तलाक तथा धारा 370 को हटाने से उसे रोजगार नही मिल पाया है। इससे प्याज और आलू की कीमतें कम नही हो पायी है। जब भाजपा ने 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में धार्मिक ध्रुवीकरण की नीयत से एक भी मुस्लमान को चुनाव का टिकट नही दिया तो क्या उससे राजनीतिक नीति सामने नही आ जाती है। एनआरसी के बाद नागरिकता संशोधन को लाना क्या परोक्ष में हिन्दु-मुस्लिम के बीच भेद को जन्म नही देता है? यदि आने वाले दिनों इस सबके परिणाम स्वरूप करोड़ों मुस्लिमों के सामने नागरिकता का सवाल आ खड़ा होता है तब उसका हल क्या होगा? क्या उन्हें पाकिस्तान, बंग्लादेश और अफगानिस्तान अपने यहां जगह देंगे? क्या तब हम अनचाहे ही एक और बंटवारे को आमन्त्रण नही दे बैठेंगे? आज समय इन सवालों पर राजनीतिक पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर सोचने की आवश्यकता है। आज विज्ञान और तकनीक के युग में धर्म के आधार पर राष्ट्रों की स्थापना नही की जा सकती। क्योंकि हमारे ही देश के एक हिस्से में रावण पूज्य हैं तो दूसरे हिस्से में उसे जलाया जाता है। ऐसे में कौन हिन्दु है और कितना श्रेष्ठ है यह भेद करना कठिन हो जायेगा।