बलात्कार, हत्या और भ्रष्टाचार ऐसे जघन्य अपराध हैं जिनके खिलाफ सख्ती से निपटा जाना आवश्यक है। यह अपराध सभ्य समाज के माथे पर कलंक होते हैं क्योंकि यह एक व्यक्ति विशेष ही नहीं बल्कि पूरे समाज के खिलाफ सामूहिक होते हैं। इसीलिये ऐसे अपराधों के खिलाफ समय-समय पर जनाक्रोश उभरता रहा है। दिल्ली में जब निर्भया कांड घटा था तब जनाक्रोश के कारण ही कानून को और सख्त किया गया था। इसी सख्ती का परिणाम था कि ट्रायल कोर्ट ने बहुत जल्द आरोपियों को फांसी की सज़ा सुनाई और दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी तुरन्त इस सज़ा का अनुमोदन कर दिया। लेकिन उसके बाद जब सर्वोच्च न्यायालय में इस पर रिव्यू याचिका दायर हुई तो वहां पर सुनवाई शुरू होने में ही दो वर्ष का समय लग गया क्योंकि स्टेट की ओर से सर्वोच्च न्यायालय में किसी ने इसका उल्लेख नही उठाया। दिल्ली के बाद शिमला के कोटखाई में ऐसा ही कांड घटा। पुलिस ने जांच शुरू की लेकिन उस पर जनाक्रोश उभरा और परिणामस्वरूप उच्च न्यायालय के निर्देशों पर इस मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी गयी। लेकिन आज अदालत में ही इस जांच पर गंभीर सवाल खड़े हो गये और नये सिरे से जांच की मांग की जाने लगी है।
शिमला कांड के बाद उन्नाव कांड सामने आया। इसमें एक विधायक और उसके लोगों पर आरोप हैं। पीड़िता को मारने के प्रयास किये गये। अन्ततः जब उसे पेशी पर ले जाया जा रहा था तब उस पर तेल छिड़क कर आग लगा दी गयी। इस आग में झुलसने के तीसरे दिन दिल्ली के अस्पताल में वह दम तोड़ गयी। इस कांड पर जनाक्रोश तब भी उभरा था और अब मौत के बाद भी उभरा है। इस कांड के दोषी विधायक को सांसद साक्षी महाराज का आशीर्वाद हासिल है जिसके लिये यह सांसद भी जनाक्रोश के दायरे में आ गये हैं। इस कांड की पीड़िता की मौत हो गयी है और यही कथित दोषी चाहते थे। ऐसे में अब अदालत किसको कब क्या सज़ा देती है या कोई सांसद इसमें भी दोषीयों को जनता के हवाले करने की मांग करता है अब इस पर निगाहें रहेंगी।
अब जब हैदराबाद की डाक्टर के साथ रेप और हत्या का प्रकरण सामने आया तो फिर जनाक्रोश उभरा क्योंकि अब डाक्टर के परिजनों ने उसके गुम होने की शिकायत घटना से दो दिन पहले पुलिस को दी थी तब उस पर कोई कारवाई नही की गयी। यह आरोप लगा कि यदि पुलिस ने शिकायत पर गंभीरता दिखाते हुए उस पर कारवाई की होती तो शायद यह कांड न घट पाता। स्वभाविक है कि इस परिदृश्य में पुलिस पर सवाल उठने ही थे जो संसद तक जा पहुंचे और वहां जया बच्चन जैसी महिला सांसदों ने आक्रोश में कथित आरोपियों को जनता के हवाले करने तक की बात कर दी। संसद में हुई इस चर्चा के बाद पुलिस ने भी आरोपियों को घटनास्थल पर लाकर मुठभेड़ में उन्हें मार गिराया। पुलिस ने इस मुठभेड़ को जायज ठहराते हुए यह तर्क दिया कि आत्म रक्षा में गोली चलानी पड़ी। आक्रोषित जनता ने भी पुलिस के इस तर्क को स्वीकार कर लिया और मुठभेड़ पर फूल बरसाते हुए स्वागत कर दिया। भीड़ का तर्क और मनोविज्ञान अपना अलग ही होता है क्योंकि उसके लिये किसी एक हो व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। लेकिन क्या पुलिस भी भीड़ ही हो सकती है? क्या भीड़ और जनाक्रोश का तर्क पुलिस ले सकती है शायद नहीं। क्योंकि यदि पुलिस को भी भीड़ होने का लाईसैन्स दे दिया जाये तो फिर पुलिस की आवश्यकता ही कहां रह जाती है। पुलिस और सीबीाआई के कई एनकांऊटर फर्जी सिद्ध हो चुके हैं जिसके लिये उसे दड़ित भी किया गया है। इसलिये एनकांऊटर को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने विस्तृत दिशा निर्देश जारी किये हुए हैं जिनके तहत हर मुठभेड़ पर एफआईआर दर्ज किया जाना आवश्यक है। हैदराबाद मुठभेड़ पर क्या कारवाई होती है यह तो आने वाले समय में ही सामने आयेगा। लेकिन यह तो स्पष्ट है कि पुलिस को इस तरह के कृत्य की कतई स्वीकारोक्ति नहीं दी जा सकती।
यह जो सारे प्रकरण घटे है और हरेक में पुलिस /सीबीआई की कार्यप्रणाली सवालों में घिर गयी है। इससे एक बार फिर सार्वजनिक बहस की आवश्यकता आ खड़ी हुई है। क्योंकि अब तक जो भी प्रावधान इस दिशा मे किये गये हैं वह सब नाकाफी साबित हुए हैं उनसे समाज में कोई डर नहीं बन पाया है इसलिये यह विचार करना आवश्यक हो जाता है कि आखिर ऐसी मानसिकता पनप ही क्यों रही है। वह कौन से कारण हैं जो इस तरह की मनोवृति को जन्म दे रहे हैं। जबकि हमारी सांस्कृतिक विरासत के मानदण्ड तो बिल्कुल अलग रहे हैं। जिस समाज में ‘‘भोजन, भजन, वस्त्र और नारी यह सब परदे के अधिकारी’’ यत्र पूजयते नारी, रमन्ते तत्र देवता’’ जैसी मान्यतांए रही हों वहां पर गैंगरेप अैर हत्या सामाजिक मूल्यों पर सवाल खड़े करेंगे ही। क्योंकि अपराध विज्ञान भी यह मानता है कि हर मानसिकता के पनपने की निश्चित पृष्ठभूमि रहती है। इसके लिये शैक्षणिक ढांचे से लेकर सोशल मीडिया जैसे मंचों की भूमिका पर भी विचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि सोशल मीडिया के कुछ मंचों में जिस तरह से सैक्स को व्यवसायिकता का आवरण दिया जा रहा है। उसका प्रतिफल ऐसे अपराधों की शक्ल में ही समाज को भुगतना पड़ेगा।
पुलिस और अदालत को ऐसे अपराधों का निपटारा ट्रायल कोर्ट से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक को एक तय समय सीमा तक करने का प्रावधान किया जाना चाहिये। इसके लिये संसद को एकजुट होकर कानून बनाना होगा। बलात्कार और हत्या तथा भ्रष्टाचार के अपराधों के लिये एक जैसा ही प्रावधान किया जाना चाहिये क्योंकि जब भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे जनप्रतिनिधियों के मामलों का निपटारा दशकों तक नही हो पाता है तो उससे समाज में अन्ततः अराजकता ही पनपती है और तब पुलिस मुठभेड़ों को भी समाज स्वागत और स्वीकार करने लग जाता है।