धूर्तता और धोखे के सहारे राजनीति कब तक

Created on Monday, 25 November 2019 06:49
Written by Shail Samachar

राजनीति संभावनाओं का पिटारा और धूर्तता का अन्तिम पड़ाव होती है यह महाराष्ट्र के घटनाक्रम ने एक बार फिर प्रमाणित कर दिया है। चुनाव पूर्व शिवसेना और भाजपा ने गठबन्धन करके चुनाव लड़ा तथा बहुमत हासिल किया। लेकिन जब सरकार बनाने की बात आयी तब शिवसेना ने अढ़ाई वर्ष उनका भी मुख्यमन्त्री बनाये जाने की बात रखी जिसका भाजपा ने विरोध किया। शिवसेना ने भाजपा पर झूठ बोलने का आरोप लगाया और भाजपा ने इस आरोप का जवाब देने की बजाये राष्ट्रपति शासन लागू करवा दिया। परिणामस्वरूप गठबन्धन टूट गया और लगा कि भाजपा शायद इस बार सिद्धान्त की राजनीति करने जा रही है क्योंकि उसने साफ कहा था कि उनके पास बहुमत का आंकड़ा नही है। इसी के साथ यह भी कहा था कि जिसके पास आंकड़ा हो वह सरकार बना ले। अन्यों को सरकार बनाने के लिये स्वभाविक था कि शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस सब आपस में मिलकर सरकार बनाये। इसके लिये प्रयास शुरू हुए तीनों दलों में सहमति बनी और संयुक्त रूप से तीनों दलों द्वारा राज्यपाल को पत्र सौंपने की स्थिति आ गयी। लेकिन जब यह स्पष्ट हो गया था कि अब तीनो दलों की ही सरकार बनने जा रही है तभी रात को एनसीपी के घर में सेंध लगाकर अजीत पवार को तोड़ा गया। अजीत पवार ने एनसीपी विधायकों के उन हस्ताक्षरों को राज्यपाल को सौंपा जो उन्होंने बैठक में आने की उपस्थिति के नाम पर किये थे। सुबह भी बैठक के नाम पर अजीत ने विधायकों को बुलाया और सीधे राजभवन ले गया। जितने में यह विधायक इस खेल को समझ पाते उतने में शपथ ग्रहण ही संपन्न हो गया। यह सब तीन विधायकों ने शरद पवार के साथ एक पत्रकार वार्ता में कहा है। अजीत पवार को एनसीपी से निकाल भी दिया गया है। शरद पवार ने कहा कि सबकुछ जानकारी में था। इसमें सच क्या है इसको बाहर आने में समय लगेगा। लेकिन जो कुछ अजीत ने किया है वह राजनीतिक धूर्तता ही कहलाता है।
भाजपा ने जो कुछ किया है क्या उसे राजनीतिक संभावना कहा जा सकता है? शायद नहीं। क्योंकि एनसीपी के साथ सरकार बनना तब राजनीतिक संभावना माना जाता यदि उसके विधायक खुलेआम शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होते और इस आश्य का वाकायदा सार्वजनिक ब्यान जारी करके आते। लेकिन ऐसा नही हुआ है इस गणित में भी यह आचरण धूर्तता में ही आता है। लेकिन इस सब में यह समझना महत्वपूर्ण हो जाता है कि अजीत पवार को यह सब क्यों करना पड़ा और येनकेन प्रकारेण सरकार बनाना भाजपा की विवशता क्यों थी। महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए थे जिसमें हरियाणा में सारे दावे के बावजूद भाजपा को सरकार बनाने का बहुमत नही मिल पाया। अब झारखण्ड के चुनाव में एलजेपी ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला लिया है। यह सब राजनीतिक संद्धर्भो में इसलिये महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि मई में हुए लोकसभा चुनावों में मिले प्रचण्ड बहुमत के यह सब एकदम उल्ट है। इसपर भाजपा का चिन्तित होना स्वभाविक है। इस चिन्ता के निराकरण के लिये उसे अपने प्रबन्धकीय कौशल का ही संदेश देना राजनीतिक बाध्यता बन जाती है।
 लेकिन इसी सब में यह सवाल फिर अपनी जगह खड़ा रह जाता है कि महाराष्ट्र में घटे पंजाब एण्ड महाराष्ट्र बैंक प्रकरण में प्रदेश के करोड़ों लोगों का पैसा डूब गया है। पन्द्रह लोगों ने अपनी जान गंवा दी है। इस प्रकरण की जांच में भाजपा से ही ताल्लुक रखने वाले नेताओं की गिरफ्तारीयां हुई हैं। इसी बैंक के प्रकरण में अजीत पवार का नाम आया है। इस प्रकरण की जांच चल ही रही है। ऐसे में यह सीधा संदेश जाता है कि अजीत ने इस प्रकरण की जांच में आने वाली आंच से बचने के लिये यह पासा बदल लिया है। इससे पहले भी कई राज्यों के ऐसे नेता भाजपा में शामिल हो चुके हैं जिनके खिलाफ ईडी और सीबीआई में जांच चल रही थी। इसलिये आज राजनीतिक दलों से यह अपेक्षा करना कि वह सिद्धान्त की राजनीति करेंगे और कम से कम भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं आने देंगे एकदम गलत होगा। महाराष्ट्र का सारा खेल अप्रत्यक्ष में इसी भ्रष्टाचार के गिई घूम रहा है लेकिन इस खेल का सबसे भयानक पक्ष यह है कि इसमें लोकतान्त्रिक परम्पराओं की बलि दी जा रही है और जब यह प्रंसग शीर्ष अदालत तक पंहुच जाते हैं तब इसमें न्यायपालिका भी कई बार एक पक्षकार जैसा ही आचरण कर जाती है। अब यह प्रकरण भी शीर्ष अदालत में जा पहुंचा है। शीर्ष अदालत ने मामले को गंभीर मानते हुए रविवार को ही सुनवाई करके इसमें सभी पक्षों को नोटिस जारी करके सोमवार को सुनवाई जारी रखने का आदेश दिया है। कर्नाटक में भी इसी तरह की परिस्थितयां बनी थी और शीर्ष अदालत ने उसमें येदुरप्पा को बहुमत साबित करने का समय सीमित कर दिया था। शीर्ष अदालत ने बहुमत के दावे के आधार के प्रमाण तलब कर लिये हैं।
आज जो कुछ यह घट रहा है और 2014 के बाद तो इसमें जिस तरह के बढ़ौत्तरी हुई है उसके परिदृश्य में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि ऐसा कब तक चलता रहेगा और क्या इसको रोका नही जा सकता है। आज की राजनीति एकदम सत्ता होकर ही रह गयी है। यदि आपके पास सत्ता है तो आप राजनीति में प्रसांगिक हैं अन्यथा नहीं फिर यह सत्ता केवल पैसे के बल पर ही हासिल की जा सकती है। इस पैसे के लिये राजनेता को या तो स्वयं उद्योगपति होना पड़ता है या फिर उद्योगपति का पक्षकार। आज सारी राजनीति इसी के गिर्द केन्द्रित होकर रह गयी है क्योंकि प्रत्यक्ष सत्ता के लिये चुनाव की सीढ़ी चढ़कर आना पड़ता है और हर बार बढ़ते चुनाव खर्च से यह सीढ़ी ऊंची ही होती जा रही है। यही खेल भ्रष्टाचार को अंजाम देता है। ऐसे में जबतक चुनाव को खर्च से मुक्त नही किया जाता तब तक सत्ता के राजनेता को भ्रष्ट होने से नहीं बचाया जा सकता है। मेरा मानना है कि चुनाव को खर्च से मुक्त किया जा सकता है। इसके लिये एक व्यवहारिक मुहिम छेड़ने की आवश्यकता है। इसके लिये क्या किया जा सकता है इसकी चर्चा आगे करूंगा।