इस समय देश आर्थिक मंदी के दौर से गुज़र रहा है क्योंकि मांग और उत्पादन दोनों में अचानक कमी आ गयी है। इस मंदी के कारण न केवल रोजगार पर असर पड़ा है बल्कि बहुत सारे छोटे और मध्यम स्तर के कामगारों का लगा हुआ रोजगार छिन गया है। आर्थिक मंदी का असर मंहगाई पर भी पड़ा है। किचन से लेकर स्कूल और स्वास्थ्य तक सभी क्षेत्रों में मंहगाई बढ़ी है। कई लोग देश की आर्थिक मंदी को वैश्विक मंदी से जोड़कर देख रहे हैं। कुल मिलाकर अभी तक इस मंदी के सार्वजनिक साधारण समझ में आने के कारण चिन्हित नहीं हो पाये हैं। क्योंकि आटोमोबाईल सैक्टर में आयी मंदी के लिये जब देश की वित्तमंत्री उबर और ओला जैसी सर्विस प्रदाता कंपनीयों को जिम्मेदार ठहरायेगी तो यह मानना पड़ेगा कि बीमारी का निदान सही नही है। उबर और ओला का आम आदमी के वाहन स्कूटर और किसान के खेत में चलने वाले ट्रैक्टर तथा माल ढोने वाले ट्रक के उत्पादन और उसकी बिक्री से कोई संबंध नही है। स्कूटर, ट्रैक्टर और ट्रक सबकी बिक्री में कमी आयी है। देश के तीस बड़े शहरों में अठाहर लाख मकान बिकने के लिये लम्बे अरसे से खड़े हैं लेकिन कोई खरीददार नही है।
सरकार ने इस मंदी से बाहर निकलने के लिये बाजार में अतिरिक्त पूंजी उपलब्ध करवाई है। बैंकों को ऋणों पर ब्याज दरें कम करने के आदेश किये हैं। इन आदेशों के बाद बैंकों ने ब्याज दरें कम भी की है लेकिन ऋणों पर ब्याज दरें कम करने के साथ ही लोगों की हर तरह की जमा पूंजी पर भी यह दरें कम हुई हैं। इसी के साथ सरकार ने आटो सैक्टर को उबारने के लिये सरकार द्वारा वाहन खरीद पर बल दिया है। क्या सरकार द्वारा नये वाहन खरीदने से यह उत्पादन में आयी मंदी दूर हो पायेगी इसको लेकर संशय बना हुआ है। क्योंकि आज केन्द्र से लेकर राज्य तक हर सरकार कर्ज के चक्रव्यूह में फंसी हुई है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि सरकार के पास पैसा कहां से आयेगा। सरकार ने बिल्डरों को राहत देते हुए उन्हें बीस हजार करोड़ की पूंजी उपलब्ध करवाई है। इस पूंजी से उन बिल्ड़रों को राहत दी जायेगी जिनके भवन निर्माण 60% तक हो चुके हैं लेकिन अगला काम पैसों के अभाव में रूक गया है। ऐसे 3.5 लाख निर्माण चिन्हित किये गये हैं जिन्हे इससे लाभ मिलेगा। इनके लिये शर्त रखी गयी है कि यह बिल्डर एनपीए में न आ गये हों और न ही अदालत में ऐसी कोई कारवाई चल रही हो। लेकिन पिछले दिनों यह आंकड़ा आया है कि इस समय देश के तीस बड़े शहरों में 18 लाख मकान तैयार खड़े हैं जिनके लिये कोई खरीददार सामने नहीं आ रहे हैं।
आज बाज़ार में हर क्षेत्र में मंदी का दौर चल रहा है कपड़ा उद्योग ने तो एक विज्ञापन छापकर अपनी मंदी की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित किया है। इस विज्ञापन के अनुसार अकेले कपड़ा उद्योग में ही परोक्ष-अपरोक्ष रूप से एक करोड़ रोजगार प्रभावित हुए हैं। इस वस्तुस्थिति में यह अहम सवाल खड़ा होता है कि बाजार में एकदम पूंजी की कमी क्यों आ गयी? पैसा चला कहां गया। इसका कोई जवाब अभी तक सरकार की ओर से नही आया है। जबकि देश के अन्दर ऐसी कोई प्राकृतिक आपदा नही आयी है जिससे एक ही झटके में लाखों करोड़ का नुकसान हो गया हो। बिना किसी आपदा के बाजा़र से पूंजी का गायब होना कई सवाल खड़े करता है। क्योंकि यह सब सरकार की नीतियों का ही परिणाम होता है और सरकार की नीतियों को उसकी सोच प्रभावित करती है। इस समय देश में केन्द्र से लेकर अधिकांश राज्यों तक भाजपा की सरकार है। भाजपा की हर सोच का केन्द्र आरएसएस है और आरएसएस का आर्थिक चिन्तन भामाशाही अवधारणा पर आधारित है। इस सोच के मुताबिक हर शिवाजी के लिये एक भामाशाही चाहिये और इस भामाशाही के लिये संसाधनों की स्वायतता चाहिये। इसी अवधारणा का परिणाम है विनिवेश मंत्रालय और सेवाओं का आऊट सोर्स किया जाना। यह विनिवेश मंत्रालय पहली बार वाजपेयी सरकार में सामने आया था। तब से लेकर अब तक भाजपा सरकारों का केन्द्र से राज्यों तक यह नीति निर्धारिक बिन्दु बन गया है। इसी का परिणाम है कि जिस संघ ने एक समय स्वदेशी जागरण मंच तले एफडीआई का विरोध किया था आज उसी की सरकार का एफडीआई एक बड़ा ऐजैण्डा बना हुआ है। इसी के लिये आज रोजगार की जगह स्वरोजगार का नारा दिया जा रहा है।
स्वभाविक है कि जब आर्थिक क्षेत्र में इस तरह का नीतिगत बदलाव लाया जायेगा तो उसमें कई तरह के जोखिम भी शामिल रहेंगे। इस तरह की आर्थिक सोच इतने बड़े लोकतांत्रिक देश के लिये कैसे लाभदायक सिद्ध हो सकती है इसके लिये एक लम्बी सार्वजनिक बहस की आवश्यकता है। खेत और कारखाने में से किसे प्राथमिकता दी जाये यह चयन करना होगा और यह चयन करते हुए यह दिमाग में स्पष्ट रखना होगा कि अनाज का विकल्प अभी तक किसी भी कम्प्यूटर में सामने नही आया है। इसीलिये आज भी गरीब के ईलाज में आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं की आवश्यकता आ खड़ी हुई है और इस आयुष्मान भारत के लाभार्थी वर्ग के लिये बुलेट ट्रैन और चन्द्रयान का कोई महत्व नही रह जाता है। आज यह सोचने की आवश्यकता है कि हमारी बुलेट ट्रैन जैसी योजनाएं कितने प्रतिशत लोगों की आवश्यकता है। जिस देश में स्वास्थ्य के लिये आयुष्मान भारत और शिक्षा के लिये मुफ्त बर्दी, मुफ्त स्कूल बैग और मीड डे मील जैसी योजनाओं की आवश्यकता मानी जा रही है उसमें आर्थिक क्षेत्र में भामाशाही अवधारणा कतई प्रसांगिक नही हो सकती यह स्पष्ट है। इस परिदृष्य मे यह सवाल और भी गंभीर हो जाता है कि बाजार में पूंजी का ऐसा अभाव कैसे आ गया कि सरकार को आरबीआई से पैसा लेना पड़ा और सार्वजनिक उपक्रमों के 75% अधिशेष संसाधन राज्य की समेकित निधि में ट्रांसफर करवाने पड़े। इसी के साथ नोटबंदी के बाद 8.5 लाख करोड़ का एनपीए बटटे खाते में डालने और 3.10 लाख करोड़ की जाली कंरसी का फिर से आ जाना सरकार के प्रयासों पर सवाल उठाता है। इस जाली करंसी पर कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने जो आरोप लगाये हैं उनपर सरकार की खामोशी पूरे मामले को और भी गंभीर बना देती है।