केन्द्र में भाजपा नीत एनडीए सरकार सत्तासीन हो गयी है। भाजपा का अपना आंकड़ा ही 303 सांसदो का हो गया है। भाजपा के सहयोगियों का आंकड़ा पचास पर है यह 2014 में भी करीब इतना ही था। इन आंकड़ों से यह सामने आता है कि एनडीए सरकार के पिछले कार्यकाल के बाद जनता में भाजपा का आधार और बढ़ा है लेकिन उसके सहयोगीयों का नहीं बढ़ा है। यह अपने में ही एक विचारणीय विषय बन जाता है। इसी के साथ अभी लोकसभा के चुनाव परिणाम आने के बाद कर्नाटक में नगर निकायों के लिये मतदान हुआ और उसके परिणाम आ गये हैं। इन निकायों के मतदान मे ईवीएम मशीनों की जगह बैलेट पेपर प्रयोग हुए। इन निकायों के परिणामों में कांग्रेस को भारी सफलता मिली है जबकि भाजपा को उतनी ही मात। यह चुनाव लोकसभा चुनावों के परिणामों के बाद एक सप्ताह से भी कम समय में हुए हैं। लोकसभा चुनावों में कर्नाटक में जो सफलता भाजपा को मिली है उसके मुकाबले में नगर निकाय चुनावों में हार मिलना फिर कई सवाल खड़े कर जाता है। क्या देश की जनता ने भाजपा की जगह प्रधानमंत्री मोदी पर विश्वास किया है या फिर इसका कारण कुछ और रहा है। आने वाले दिनों में यह चिन्तन का एक बड़ा विषय बनेगा यह तय है।
इस बार जो सांसद चुनकर आये हैं उनमें अपराधी छवि के माननीयों का आंकड़ा 2014 के मुकाबले बहुत बढ़ गया है। स्थिति यहां तक पहुंच गयी है कि 58 सदस्यों के मन्त्रीमण्डल में ही 22 लोग आपराधिक छवि वाले हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने पिछली बार वायदा किया था कि वह संसद को अपराधियों से मुक्त करवायेंगे। लेकिन ठीक इस वायदे के विपरीत मोदी को अपने मन्त्रिमण्डल में ही आपराधिक छवि वालों को मन्त्री बनाना पड़ गया है। इसी के साथ एक तथ्य यह भी सामने आया है कि इस बार संसद और मन्त्रीमण्डल में करोड़पत्तियों की संख्या भी बढ़ गयी है। इस बार मोदी मन्त्रीमण्डल के शपथ ग्रहण समारोह में बंगाल की मुख्यमन्त्री ममता बैनर्जी शामिल नही हुई है। क्योंकि इस शपथ ग्रहण समारोह में बंगाल के उन परिवारों को आमन्त्रित किया गया था जो इन चुनावों में हिंसा का शिकर हुए हैं। मोदी सरकार ने इसे चुनावी हिंसा कहा है तो ममता ने इसे चुनावी हिंसा मानने से इन्कार किया और इसी पर वह शपथ ग्रहण में शामिल नही हुई। हिंसा के शिकार हुए परिवारों को इसमें तुरन्त प्रभावी न्याय देने और इन परिवारों को अन्य सहायता देने की बात किसी की ओर से नहीं की गयी। इस हिंसा को केवल चुनाव के आईने से ही देखा गया। यह सवाल भी नही उठाया गया कि जब पहले चरण के मतदान से ही यह हिंसा शुरू हो गयी थी तब चुनाव आयोग क्या कर रहा था। जिसके अधीन सारा प्रशासन था।
अब बंगाल में ‘‘जय श्री राम’’ का नारा भी हिंसा का कारक बन गया है। बंगाल में प्रशासन की सफलता/असफलता कोई मुद्दा नही रह गया है। लोकसभा चुनावों में भी ममता टीएमसी का जनाधार चार प्रतिशत बढ़ा है। यह प्रतिशत बढ़ने का आधार विकासात्मक कार्य रहे हैं? यह चर्चा का कोई विषय ही नही है। शासन प्रशासन को लेकर उठने और पूछे जाने वाले सारे सवाल एक ‘‘जयश्री राम’’ के नारे के आगे बौने पड़ गये हैं। मीडिया का भी एक बड़ा वर्ग इस नारे को बड़ा मुद्दा बनाने में लग गया है। इस मीडिया के लिये अमरीका द्वारा भारत को जीएसपी से बाहर कर देना कोई मुद्दा नही है। वर्ष 2018- 19 मे बैंको में 71500 करोड़ के फ्राड हो जाना भी कोई अहम सवाल नही है जो सरकार से पूछा जाना चाहिये। आज चुनाव परिणाम आने के बाद बहुत सारी वस्तुओं के दाम बढ़ गये हैं लेकिन इस पर कहीं कोई सवाल नही उठ रहा है। बल्कि ऐसा लग रहा है कि आगे आने वाले कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी आम आदमी को छूने वाले मुद्दे न उठे उसके लिये ‘‘जयश्री राम’’ की तर्ज के नारे उछालने का प्रयास अभी से शुरू हो गया है।
लोकसभा चुनावों में भी महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसे आम आदमी के मुद्दों को जन चर्चा नही बनने दिया गया। लेकिन इनके चुनावों में गौण हो जाने के बाद भी यह अपनी जगह खड़े हैं बल्कि ज्यादा भयावह होकर सामने हैं और सबसे ज्यादा उसी आम आदमी को प्रभावित करेंगे जो इस बारे में ‘‘जय श्री राम’’ से अधिक कुछ भी सोचने समझने की स्थिति में नही है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि ऐसा कब तक चलता रहेगा और उसका अन्तिम परिणाम क्या होगा? क्योंकि आज माननीयों का हर अपराध जनता की अदालत में आकर हार जाता है। जनता का फतवा हासिल होने के बाद कानून की अदालत इन मामलों में बौनी पड़ जाती है और दशकोें तक यह मामलें लंबित रहते हैं। राजनीतिक दलों का चरित्र और चेहरा कारपोरेट घरानों की तर्ज पर आ गया है। हर दल के कार्यालय को समाज सेवी कार्यकर्ताओं की जगह अच्छी पगार लेने वाले कर्मचारी चला रहे हैं। दल के पदाधिकारी कारपोरेट घरानों की तर्ज पर निदेशकों की भूमिका में आ गये हैं। राजनीतिक दल कारपोरेट घरानों से भी कमाई करने वाले अदारे बन गये हैं। आज लोकसभा चुनाव लड़ना परोक्ष/अपरोक्ष में सामान्य हल्कों में भी पन्द्रह से बीस करोड़ का निवेश बन गया है। राजनीतिक दल से बाहर रह कर चुनाव लड़ पाना अब केवल दिखावापन बन कर रह गया है क्योंकि चुनाव प्रचार इतना मंहगा हो गया है कि उसमें बौद्धिक मैरिट के लिये कोई जगह ही नही रह गयी है। यह जो कुछ चुनाव के नाम पर इस समय चल रहा है उसे लोकतन्त्र की संज्ञा तो कतई नही दी जा सकती। क्योंकि जहां चुनाव प्रक्रिया के मुख्य केन्द्र ईवीएम पर ही शंकाओं का अंबार खड़ा हो चुका है उस पर विश्वास बहाल करने के लिये चुनाव प्रक्रिया में ही आमूल संशोधन की आवश्यकता है। राजनीतिक दलों को कारपोरेट चरित्र से बाहर निकालने की आवश्यकता है। इसके लिये राजनीतिक पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर आज एक सार्वजनिक बहस की आवश्यकता है। जिससे एक सार्वजनिक स्वीकार्यता पर पहुंचा जा सके। यदि ऐसा नही हो सका तो लोकतन्त्र कब आराजक तन्त्र बन जायेगा यह पता भी नही चल पायेगा क्योंकि सही मायनों में अब लोकतन्त्र खतरे की दहलीज पर पहुंच गया है।