जब प्रधानमन्त्री ही भाषायी मर्यादा लांघ जाये

Created on Tuesday, 02 April 2019 05:06
Written by Shail Samachar

आज प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी से लेकर कार्यकर्ता तक पूरी भाजपा ‘‘मै भी चौकीदार’’ हो गयी है। 2014 में जब लोकसभा के चुनाव हुए थे तब देश की जनता ने इन लोगों को जन प्रतिनिधि के रूप में चुनकर देश की सत्ता सौंपी थी। देश की जनता ने इन पर इनके द्वारा किये गये वायदों पर विश्वास करके इन्हें सत्ता सौंपी थी। लेकिन आज इस कार्यकाल का अन्त आते तक यह सब चौकीदार हो गये हैं। देश की जनता ने अपना वोट देकर इन्हें प्रतिनिधि चुना था चौकीदार नहीं। चौकीदार मतदान के माध्यम से नही चुना जाता उसके चयन की एक अलग प्रक्रिया रहती है। लेकिन अब जब यह सब चौकीदार हो गये हैं तब इन्हें चौकीदार की चयन प्रक्रिया की कसौटी पर जांचना आवश्यक हो जाता है। इस जांच -परख के लिये ही मैने पिछली बार ‘‘अब देश का चौकीदार ही सवालों में’’ अपने पाठकों के सामने एक बहस उठाने की नीयत से रखा था। बहुत सारे पाठकों ने मेरे दृष्टिकोण को समर्थन दिया है तो कुछ ने उससे तलख असहमति व्यक्त की है। इस असहमति के आधार पर मैं इस बहस को आगे बढ़ा रहा हूं।
मेरा स्पष्ट मानना है कि जब सत्ता की जिम्मेदारी उठाने वाले लोग स्वयं चौकीदार का आवरण ओढ़कर सत्ता से जुड़े तीखे सवालों से बचने का प्रयास करेंगे तब यह लोकतन्त्र के लिये एक बड़ा खतरा हो जायेगा। सत्ता पक्ष होने के नाते यह इन लोगों की जिम्मेदारी थी कि यह देश के ‘‘जान और माल’ की रक्षा करते और अपने पर उठने वाले हर सन्देह और सवाल की निष्पक्ष जांच के लिये अपने को प्रस्तुत करते। देश जानता है कि जब 2014 में सत्ता संभाली थी तब सत्ता पक्ष के कई जिम्मेदार लोगों के ऐसे ब्यान आने शुरू हो गये थे कि इनसे वैचारिक असहमति रखने वाले हर आदमी को पाकिस्तान जाने का फरमान सुना देते थे। इन्ही फरमानों के कारण लोकसभा में प्रचण्ड बहुमत हासिल करने के बाद दिल्ली विधानसभा चुनावों में केवल तीन सीटों पर सिमट कर रह गये। दिल्ली की हार के कारणों का सार्वजनिक खुलासा आज तक सामने नहीं आ पाया है। 2014 के चुनावों में और उससे पूर्व उठे भ्रष्टाचार के तमान मुद्दो का प्रभाव था कि देश की जनता ने तत्कालीन यूपीए सरकार को भ्रष्टाचार का पर्याय मानकर सत्ता से बाहर कर दिया। लेकिन एनडीए के पूरे शासन काल में भ्रष्टाचार के उन मुद्दों पर दोबारा कोई चर्चा तक नही उठी। लोकपाल की मांग करने वाले अन्ना हजारे तक उन मुद्दों को भूल गये। बल्कि जब टूजी स्पैक्ट्रम घोटाले पर अदालत में यह आया कि यह घोटाला हुआ ही नही है तब किसी ने भी इसपर कोई सवाल नही उठाया। 1,76,000 करोड़ का आंकड़ा देने वाले विनोद राय तक को किसी ने नही पूछा जबकि इसी घोटाले में यूपीए में शासनकाल में बड़े लोगों की गिरफ्रतारी तक हुई थी। क्या अब इस घोटाले में कुछ कंपनीयों और बड़ों को बचाया गया है? यह सवाल उठ रहा है और कोई चौकीदार इसका जवाब नही दे रहा है। काॅमनवैल्थ गेम्ज़ घोटाले पर 2010 में आयी रिपोर्ट पर क्या कारवाई हुई है। इसका कोई जवाब नही आ रहा है। आज लोकपाल की नियुक्ति से पहले भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम का संशोधन कर दिया गया है। क्या आज इस संशोधित अधिनियम के बाद कोई भ्रष्टाचार की शिकायत कर पायेगा? इस संशोधन पर उठे सवालों का प्रधान चौकीदार से लेकर नीचे तक किसी ने कोई जवाब नही दिया है। क्या इन सवालों पर इन चौकीदारों की जवाबदेही तय नहीं होनी चाहिये। क्या आज चुनाव से पहले यह सवाल पूछे नहीं जाने चाहिये?
आज जब भाजपा ‘‘मै भी चौकीदार’’ अभियान छेड़कर कांग्रेस से पिछले साठ सालों का हिसाब पूछने जा रही है तब क्या उसे यह नहीं बताना चाहिये कि 2014 में उसने वायदा क्या किया था? क्या तब देश से यह नहीं कहा गया था कि हम सबकुछ साठ महीनों में ही ठीक कर देंगे। तबकी यूपीए सरकार को बेरोजगारी और महंगाई पर किस तरह कोसा जाता था लेकिन आज जब इन मद्दों पर सवाल पूछे जा रहे हैं तब कांग्रेस के साठ सालों की बात की जा रही है। क्या 2014 में देश से यह कहा गया था कि जो कुछ साठ सालों में खराब हुआ है उसे ठीक करने के लिये हमें भी साठ साल का ही समय चाहिये। तब तो साठ साल बनाम साठ महीनों का नारा दिया गया था। आज तो यह हो रहा है कि जब कांग्रेस ने भ्रष्टाचार किया है तब हमें भी भ्रष्टाचार करने का लाईसैन्स मिल गया है। आज रोजगार के नाम पर हर काम को हर सेवा को आऊट सोर्स से करवाया जा रहा है। इस बढ़ते आऊट सोर्स पर तो अब यह सवाल उठना शुरू हो गया है कि जब सरकार कोई भी सेवा स्वयं देने में असमर्थ है तब क्या सरकार को भी आऊट सोर्स से ही नहीं चलाया जाना चाहिये।
आज चुनाव होने जा रहे हैं इसलिये यह आवश्यक हो जाता है कि चोरी के आरोपों को चौकीदारी के आवरण में दबने न दिया जाये। क्योंकि जब सत्तारूढ़ भाजपा स्वयं 38 दलों के साथ गठबन्धन कर चुकी है तब उसे दूसरों के गठबन्धन से आपत्ति क्यों? अभी प्रधानमन्त्री ने सपा, आर एल डी और बसपा के गठबन्धन को शराब की संज्ञा दी है। क्या देश के प्रधानमन्त्री की भाषा का स्तर ऐसा होना चाहिये? इस संद्धर्भ में यदि कोई पूरी भाजपा के ‘‘मैं भी चौकीदार’’ होने को ‘‘चोर मचाये शोर’’ की संज्ञा दे डाले तो उसे कैसा लगेगा। यह सही है कि देश का बुद्धिजीवी वर्ग आज प्रधानमन्त्री की हताशा को समझ रहा है क्योंकि जिस तरह 2014 में लोग कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जा रहे थे आज ठीक उसी तरह भाजपा छोड़कर कांग्रेस में जाने का दौर चल पड़ा है और इससे हताश होना संभव है और उसे सार्वजनिक होने से रोकने के लिये किसी न किसी आवरण का सहारा लेना पड़ता है लेकिन एक सपूत को भाषायी मर्यादा लांघना शोभा नहीं देता। अपनी असफलताओं को भी स्वीकारने का साहस होना चाहिये क्योंकि सरकार भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई जैसे सारे मुद्दों पर पूरी तरह असफल हो चुकी है। जिस सरकार को जीडीपी की गणना के लिये तय मानक बदलना पड़ जाये उसके विकास के दावों पर कोई कैसे भरोसा कर पायेगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है।