शिमला/शैल। प्रदेश भाजपा में 44 सीटें जीतने के बावजूद भी नेता के चयन पर उभरी धडेबन्दी नारेबाजी तक जा पहुंची थी। और इस पर पार्टी के वरिष्ठ नेता शान्ता कुमार ने कडी प्रतिक्रिया भी जारी की थी लेकिन यह खेमेबन्दी की पृष्ठभूमि में उभरी नारेबाजी यहीं न रूककर मन्त्रीमण्डल के गठन तक भी पहुंच गयी है। मन्त्री परिषद् में स्थान न मिलने पर विक्रम जरयाल, नरेन्द्र बरागटा और राजीव बिन्दल के समर्थकों की नाराज़गीे सार्वजनिक से सामने आ गयी है। रमेश धवाला ने तो यहां तक कह दिया है कि यदि 1998 में वह समर्थन न देते तो सरकार ही न बनती। मन्त्री परिषद् में चम्बा, बिलासपुर, हमीरपुर और सिरमौर जिलों को प्रतिनिधित्व नही मिल पाया है। मन्त्रीमण्डल के गठन में पार्टी के भीतरी सूत्रों के मुताबिक लोकसभा क्षेत्रों के आधार पर प्रतिनिधित्व दिया गया है। प्रत्येक लोकसभा क्षेत्र से तीन -तीन मन्त्री लिये गये हैं। लेकिन इसमें शिमला क्षेत्र से दो ही लिये जा सके हैं। मन्त्रीमण्डल में कोई स्थान खाली नही है अब केवल दो लोग विधानसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के रूप में ही नियुक्त होने शेष रह गये हैं और इस तरह कुल चोदह लोग ही समायोजित हो पाये हैं। शेष बचे 30 लोगों में से क्या कुछ संसदीय सचिव बगैरा बनाकर समायोजित किया जाता है या नहीं, यह तोे आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन अब यह तो स्पष्ट हो चुका है कि बिना किसी को हटाये दूसरा व्यक्ति मन्त्री नही बन पायेगा।
राजनीति में स्वार्थ सिन्द्धातों पर भारी पड़ जाते है यह सर्वविदित है और हर निर्वाचित विधायक की ईच्छा मन्त्री बनने की रहती ही है यह भी स्वभाविक ही है। ऐसे में मुख्यमन्त्री इस अभी उभरे रोश को आगे न बढ़ने देने के लिये किस तरह की रणनीति अपनाते हैं यह देखना महत्वपूर्ण होगा। सदन में कांग्रेस से ज्यादा अपने ही विधायकों की कार्यप्रणाली सरकार को प्रभावित करेगी यह तय है क्योंकि कांग्रेस के अन्दर वीरभद्र, मुकेश अग्निहोत्री और आशा कुमारी और सुक्खु के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा अनुभवी नज़र नही आता है जो सरकार के हर कार्य पर पैनी नज़र बनाये रखेगा। फिर वीरभद्र और आशा कुमारी को तो अभी अपने मामलों से भी बाहर आने में समय लगेगा। ऐसे में सरकार पर अपनो की ही पैनी नज़र हर समय बनी रहेगी यह तय है। अपनों की यह पैनी नज़र सरकार को कहां तक असहज कर देती है यह धूमल के दोनों शासनकालों में खुलकर सामने आ चुका है और अब तो पहले दिन से हीे रोष के स्वर मुखर हो गये हैं। अभी विभिन्न निगमों/वार्डों में जब ताजपोशीयों का दौर शुरू होगा तब फिर रोष के उभरने की संभावना रहेगी। कांग्रेस के भीतर इन्ही ताजपोशीयों से शुरू हुआ रोष अन्त तक बराबर बना रहा और उसी के कारण कांग्रेस इस स्थिति तक पहुंची है।
इस पृष्ठभूमि को सामने रखते हुए यह सवाल अभी से चिन्ता का मुद्दा बनते नज़र आ रहे हैं कि भाजपा में पहले दिन से ही उठे यह रोष के स्वर कहां तक जायेेंगेे क्योंकि भाजपा ने अपने चुनाव प्रचार का अभियान वीरभद्र सरकार से ‘‘हिमाचल मांगे हिसाब’’ से शुरू किया था। इस हिसाब मांगने के चार पेज के दस्तावेज के अन्तिम पैरा में प्रदेश के मुख्य सचिव मुख्यमन्त्री के प्रधान निजि सचिव सुभाष आहलूवालिया तथा मुख्यमन्त्री के सुरक्षा अधिकारी पदम ठाकुर के नाम लेकर मुख्यमन्त्री से सीधे कुछ सवाल पूछेे गये थे। इन सवालों से यह स्पष्ट इंगित होता था कि सत्ता में आने पर भाजपा सरकार इन अधिकारियों को लेकर तो कोई कारवाई शीघ्र ही अमल में लानी आवश्यक हो जायेगी। सुभाष आहलूवालिया की पत्नी की नियुक्ति पर सवाल उठाये गये थे। पदम ठाकुर के कुछ परिजनों को मिली नियुक्तियों पर गंभीर सवाल थे। लेकिन अब पदम ठाकुर को सेवा नियमों में कुछ ढ़ील देकर फिर से वीरभद्र का सुरक्षा अधिकारी रहने दिया गया है। भाजपा ने इन अधिकारियों पर इसलिये सवाल उठाये थे क्योंकि जनता की नज़र में भी सबकुछ गलत था लेकिन अब यदि भाजपा अपने ही उठाये इन सवालों पर खामोश बैठी रहती है तो आने वाले समय में इसी सब पर भाजपा से भी हिसाब मांगने की नौबत आ जायेगी। बल्कि कुछ समय बाद तो कांग्रेस स्वयं भी इस सबको लेकर आक्रामक हो जायेगी। जिस तरह सेे टूजी स्पैकट्रम के मामले में स्थिति पूरा यूटर्न ले गयी है। 2019 में भाजपा को लोकसभा चुनावों का सामना करना है। यदि इन चुनावों तक भाजपा अपने ही सौपें आरोप पत्रों और ‘‘हिसाब मांगे हिमाचल’’ में दर्ज मामलों पर कुछ ठोस करकेे नही दिखाती है तो उसके लिये परिस्थितियां कोई बहुत सुखद रहने वाली नही रहेंगी। इसलिये पिछलेे छः माह के फैंसलों पर पुनर्विचार करने से आगे के कदम भी उठाने होंगे अन्यथा यह सारी कवायद बेमानी होकर रह जायेगी।