शिमला/शैल। नौ नवम्बर को हुई चुनावी परीक्षा का परिणाम 18 दिसम्बर को आयेगा। यह परिणाम किसके पक्ष में कितना रहेगा और नौ का अंक किसके लिये कितना भाग्यशाली रहेगा यह तो परिणाम आने पर ही पता चलेगा, लेकिन मतदान के बाद जैसेे - जैसे समय आगे बढ़ता गया उसकेे साथ ही कांग्रेस और भाजपा के भीतर चुनाव के दौरान जो कुछ घटा वह सामने आता चला गया। राजनेताओं और राजनैतिक दलों के अतिरिक्त प्रदेश के शीर्ष प्रशासन के अन्दर जो कुछ घटा है वह भी काफी चैंकाने वाला रहा है। वैसे तो नौकरशाही का यह स्वभाविक गुण है कि वह मतदान के बाद आने वाली सरकार किसकी होगी इसके गणित में जुट जाती है। फिर इस गणित के साथ ही वह संभावित सरकार के साथ अपने समीकरण बनाने के जुगाड़ मे लग जाते हैं कोई दिन के उजाले में तो कोई रात के अन्धेरे में होने वाली सरकार के शीर्ष नेताओं के साथे मिलने- जुलनेे के प्रयासों में लग जाते है। शीर्ष नौकरशाही के इस आचरण का कोई ज्सादा बुरा भी नही मानता है क्योंकि असलीे सरकार तो इन्ही लोगों ने चलानी होती है। सत्ता में राजनीतिक चेहरों के बदलने से सरकार के काम काज़ में कोई ज्यादा फर्क नही पड़ता है क्योंकि अधिकांश मन्त्री और विधायक तथा उनके समर्थक रहे लोग तो कर्मचारियों के तबादलों में ही उलझ कर रह जाते हैं। ऐसे में सरकार चलाने में इसी नौकरशाही की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है और मुख्यमन्त्री अपने अतिविश्वस्तों को ही महत्वपूर्ण पदों पर बिठाते हैं। लेकिन जब यह अतिविश्वस्त ही रात के अन्धेरे में भावी मुख्यमन्त्री को मिलने चले जातें हैं तो फिर सारी चर्चाओं का केन्द्र ही बदल जाता है। चर्चा है कि वीरभद्र के विश्वस्त मुख्य सचिव वीसी फारखा एक दिन रात को टैक्सी लेकर प्रेम कुमार धूमल के यहां दस्तक दे आये। यह एक संयोग ही था कि जब फारखा धूमल के यहां पहुंचेे तो एक मण्डी जिले से ताल्लुक रखने वाले पूर्व मन्त्री पहले ही वहां डेरा डाले बैठे थे।
चर्चा है कि फारखा की इस दस्तक के बाद ही वीरभद्र के तीन मन्त्रीयों जीएस बालीे, सुधीर शर्मा और मुकेश अग्निहोत्री ने अपने शिमला स्थित सरकारी आवासों से अपना कुछ सामान भी निजि आवासों में शिफ्रट कर लिया है। यही नही इसी मुलाकात के बाद सरकार द्वारा अदानी के 280 करोड़ वापिस करने के पूर्व में लिये गये फैंसले को फिर से बदलने की चर्चा भी बाहर आ गयीे है। अदानी के संद्धर्भ में पहले फैसला लेने में भी इसी शीर्ष नौकरशाही की भूमिका प्रमुख थी और अब इस फैसलेे को बदलने में भी इसी की भूमिका प्रमुख रही है। शीर्ष नौकरशाही और कुछ वरिष्ठ मन्त्रियों का यह आचरण राजनीति की भाषा में सत्ता के बदलाव का संकेत माना जाता है। लेकिन क्या इस बार यह बदलाव सीधे और सरलता से हो रहा है। इसको लेकर राजनीतिक विश्लेष्कों की राय वरिष्ठ नौकरशाही और राजनेताओं के आचरण से भिन्न है। इस बदलाव का आंकलन करने के लिये पूरे चुनावी अभियान पर नजर दौड़ाने की आवयश्कता है। चुनाव अभियान के शुरू होने से पहले भाजपा का ग्राफ बड़ा ऊंचा था बल्कि उस समय कांग्रेस को लेकर तो यह धारणा बनती जा रही थी कि कांग्रेस तो दहाई का आंकड़ा भी पार नहीं कर पायेगी, लेकिन आज मतदान तक आते -आते कांग्रेस को न केवल फाईट में ही माना जा रहा है बल्कि उसकी सत्ता में वापसी तक के आंकलन बनाये जा रहे हैं।
कांग्रेस की चर्चा सत्ता में वापसी तक कैसे पंहुच गयी और अचानक भाजपा के खिलाफ क्या खड़ा हो गया यह राजनीतिक विश्लेष्कों के लिये एक रोचक विषय बन गया है। कांग्रेस प्रदेश के भीतर इस दौरान कुछ नया नहीं कर पायी है यह स्पष्ट है लेकिन कांग्रेस के भीतर सुक्खु और वीरभद्र के बीच जो तनाव चल रहा था उससे यह धारणा बनती जा रही थी कि कांग्रेस के अन्दर बडा विघटन हो जायेगा परन्तु यह विघटन हो नही पाया। हालांकि पंड़ित सुखराम के परिवार और स्व. डा. परमार के पौत्र को भाजपा में शामिल करके यह संदेश देने को प्रयास अवश्य किया गया परन्तु पंडित सुखराम को भ्रष्टाचार के मामले में हुई सज़ा का प्रसंग जन चर्चा में आने से यह दांव उल्टा पड़ गया। इसी के साथ भाजपा कार्यकर्ताओं को यह उम्मीद थी कि इस बार पार्टी संघ की विभिन्न ईकाईयों के सक्रिय कार्यकर्ताओं को टिकट देकर चुनाव में उतारेगी। उम्मीद की जा रही थी कि कम से कम एक दर्जन ऐसे नये चेहरों को जगह मिलेगी लेकिन ऐसा हो नही पाया उल्टे कांग्रेस से कुछ लोगों को टिकटे दे दिये गये। इससे भाजपा के बहुत सारे कार्यकर्ताओ में निराशा फैल गयी। यही निराशा आगे चलकर भीतरघात के रूप में सामने आयी जिसकी शिकायतें लगभग हर चुनावक्षेत्र से सामने आयी। इसी के साथ मंहगाई जीएसटी और नोटबंदी ने भी भूमिका निभाई। भाजपा ने अपने चुनाव अभियान में वीरभद्र के भ्रष्टाचार को केन्द्रिय मुद्दा बनाकर उछाला लेकिन जब इस भ्रष्टाचार के खिलाफ केन्द्रीय ऐजैन्सीयों द्वारा वीरभद्र के खिलाफ कोई ठोस कारवाई न कर पाने के सवाल पूछे जाने लगे तो यह दाव भी उल्टा पड़ गया। इन स्थितियों को संभालने के प्रयास में प्रेम कुमार धूमल को नेता घोषित किया गया, लेकिन यह फैंसला इतना देरी से लिया गया कि फैसलेे पर उन लोगों का भीरतघात चर्चा में आ गया जो स्वयं को नेता मानकर चल रहे थे। ऐसे में भाजपा के इन अपने ही फैंसलों के कारण कांग्रेस पूरे मुकाबलेे में अकेले वीरभद्र के दम पर आ खड़ी हुई। आज इस सारे परिदृश्य का निष्पक्ष आंकलन करने पर यह लग रहा है कि किसी भी दल को सरकार बनाने को बहुमत नही मिल पायेगा। निर्दलीय और माकपा के खाते में तीन से पांच सीटें जाने की संभावना है और यही लोग सरकार बनाने में मुख्य भूमिका निभायेंगे।