शिमला/शैल। विधानसभा का यह मानसून सत्र लोक जीवन के गिरते मानकों की एक ऐसी इवारत लिख गया है जो शायद कभी मिट न सके। लोक जीवन में लोक लाज एक बहुत बडा मानक होता है और सत्र में यह लोक लाज तार -तार होकर बिखर गयी। लेकिन इन मानको के वाहक लोक तन्त्र के सारे सतम्भ मूक होकर बैठे रहे। सत्र के पहले ही दिन जब सदन में मुख्य मन्त्री के उस वक्तव्य का मुद्दा आया जिसमें उन्होने कहा था कि भाजपा में एक दो को छोड़ कर कोई भी सदन में आने लायक नही है। यह वक्तव्य खूब छपा था लेकिन जब सदन में बात आयी तो छठी बार मुख्य मन्त्री बने वीरभद्र सिंह सिरे से ही मुकर गये और कहा कि उन्होनें ऐसा कोई वक्तव्य दिया ही नही है। उनके सज्ञांन में तो यह बात आयी ही अब है। यदि अखबारों ने छापा है तो झूठ छापा है। जो कुछ छपता है उसे सूचना तन्त्र मुख्यमन्त्री के सामने रखता है गुप्तचर विभाग भी मुख्यमन्त्री के संज्ञान में ऐसी चीजे लाता है। लेकिन मुख्यमन्त्री का इस सबसे सिरे से ही इन्कार कर देना राजनीतिक, चरित्र को तो उजागर करता ही है। साथ ही पूरे तन्त्र की कार्यशैली ओर विश्वनीयता पर भी गंभीर सवाल खड़े कर जाता है। पहला दिन इसी हंगामे की भेंट चढ़ जाता है।
सत्र के दूसरे दिन अखबारों में खबर छपी की सीबीआई वीरभद्र के खिलाफ चार्ज शीट तैयार करके अदालत में दायर करने जा रही है। इस खबर पर भी सदन में चर्चा की बात आयी। वीरभद्र और कांग्रेस इस पर चर्चा के लिये तैयार नही थे। वीरभद्र ने उनके खिलाफ चल रही जांच को जेटली, अनुराग, अरूण और प्रेम कुमार धूमल का षड्यंत्र करार दिया। यहंा तक कह दिया कि उनके खिलाफ साजिश करने वालों का मुंह काला होगा। वीरभद्र यहीं नही रूके और यह भी कह दिया कि ऐसी खबरें छापने वाले अखबारों का भी मुंह काला होगा। मुद्दा संवेदनशील था और मुख्यमन्त्री इससे बुरी तरह आहत भी है। अपने राजनीतिक जीवन के सबसे कठिन दौर से गुजर रहे है। जैसे-जैसे वीरभद्र के खिलाफ सीबीआई और ईडी की जांच आगे बढ़ रही है उसका असर सरकार पर पड़ रहा है पूरा प्रशासन चरमरा गया है। निश्चित रूप से यह पूरा मुद्दा एक ऐसे मुकाम पर पहुंच चुका है जहां इसे आसानी से नजर अन्दाज करना संभव नही है केन्द्रिय वित्त मन्त्री और नेता प्रतिपक्ष पूर्व मुख्यमन्त्री तथा उनके सांसद पुत्र पर इसमें षड्यंत्र रचने का आरोप लग रहा है। ऐसे में इस मुद्दे पर सदन के पटल से ज्यादा उपयुक्त मंच चर्चा के लिये और क्या हो सकता है। प्रदेश की जनता को सच्चाई जानने का पूरा हक है। इसके लिये सदन में भाजपा का इस पर चर्चा की मांग उठाना और सत्ता पक्ष के इससे इन्कार करने पर रोष और आक्रोश का उभरना स्वाभाविक था। इसी आक्रोश में रवि ने माईक पर हाथ दे मारा और इसी हंगामे में कार्यवाही समाप्त हो गयी।
तीसरे दिन सदन के शुरू होते ही पिछले दिन की घटना को लेकर रवि के खिलाफ सत्ता पक्ष की ओर से कारवाई की मंाग उठी और स्पीकर ने रवि के निलंबन का आदेश पढ़ दिया। इस पर फिर हंगामा हुआ। दोनो ओर से पूरे प्रहार किये गये। थोडी देर के लिये सदन की कार्यवाही रोक कर इस मसले का हल निकालने का आग्रह आया। आग्रह स्वीकार हुआ कार्यवाही रोकी गयी। इसके बाद जब सदन की कार्यवाही पुनः शुरू हुई तो रवि के माफी मांगने से मामले का पटाक्षेप हो गया। राजनीतिक तौर पर भाजपा के हाथ से मुद्दा फिसल गया। यदि निलंबन जारी रहता तो भाजपा के पास पूरी स्थिति को जनता की अदालत में ले जाने का पूरा पूरा मौका था जो माफी मागने से निश्चित् रूप से कमजोर हुआ है। इसी के साथ जिस बिन्दु पर यह हंगामा आगे बढ़ा और जेटली -धूमल पर षडयन्त्र रचने का आरोप लगा वह यथा स्थिति खड़ा रह गया।
चैथे दिन भी हंगामा रहा है सदन में आये सारे विधेयक बिना किसी बड़ी चर्चा के पारित हो गये। जिन मुद्दो पर जनता ने रोष व्यक्त किया हुआ था और शिमला नगर निगम जैसी चयनित संस्था ने रोष और सुझाव व्यक्त किये थे वह सब सदन में चर्चा का विषय ही नहीं बना। अपने लाभों सहित सब कुछ ध्वनि मत से पारित हो गया। इस पूरे परिदृश्य को यदि पूरी निष्पक्षता से आंका जाये तो राजनीतिक चरित्र का इससे बड़ा हल्कापन और कुछ नहीं हो सकता हैै। मीडिया को कोसने से सच्चाई पर ज्यादा देर तक पर्दा नही डाला जा सकता है लेकिन इसी के साथ मीडिया के लिये भी अपनी भूमिका पर आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता आ खडी होती है।