शिमला/शैल। प्रदेश कांग्रेस के नये अध्यक्ष का चयन क्यों नहीं हो पा रहा है? यह सवाल अब आम चर्चा का विषय बनता जा रहा है। क्योंकि सात माह पहले प्रदेश अध्यक्षा श्रीमती प्रतिभा सिंह को छोड़कर राज्य से लेकर ब्लॉक स्तर तक की सारी कार्यकारिणीयां भंग कर दी गई थी। तब यह तर्क दिया गया था कि निष्क्रिय पदाधिकारी के स्थान पर नये कर्मठ लोगों को संगठन में जिम्मेदारियां दी जायेंगी। नये लोगों की तलाश के लिये एक पर्यवेक्षकों की टीम भेजी गई थी। इस टीम की रिपोर्ट पर नये पदाधिकारी का चयन होगा। लेकिन कोई परिणाम सामने नहीं आया। इसी बीच राजीव शुक्ला की जगह रजनी पाटिल को प्रभारी बनाकर भेज दिया गया। रजनी पाटिल ने भी बड़े आश्वासन दिये परन्तु स्थितियां नहीं बदली। प्रदेश अध्यक्षा प्रतिभा सिंह ने यह स्वीकार किया कि राहुल गांधी से भी आग्रह किया गया था की नई कार्यकारिणी का गठन शीघ्र किया जाये। लेकिन इसका भी कोई परिणाम नहीं निकला। इसी बीच प्रदेश अध्यक्ष भी नया ही बनाये जाने की चर्चा चल पड़ी है। इस चर्चा पर प्रतिभा सिंह का यह ब्यान आया था कि नया अध्यक्ष रबर स्टैंप नहीं होना चाहिये। पिछले दिनों यह भी चर्चा में रहा कि नया अध्यक्ष अनुसूचित जाति से होगा यह सिद्धांत रूप से तय हो गया है। इस दिशा में कई नाम भी चर्चित हुये और कहा गया कि नया अध्यक्ष और प्रदेश मंत्रिमंडल का विस्तार एक साथ ही हो जायेगा। क्योंकि मंत्रिमंडल में एक स्थान खाली चल रहा है। लेकिन जो परिस्थितियों चल रही हैं उनके अनुसार अभी निकट भविष्य में ऐसा कुछ होता नजर नहीं आ रहा है।
प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बने अढ़ाई वर्ष का समय हो गया है। विधानसभा चुनाव के दौरान प्रतिभा सिंह प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष थी लेकिन जब मुख्यमंत्री के चयन की बात आयी तब प्रदेश अध्यक्ष कि उस चयन में कितनी भागीदारी रही यह पूरा प्रदेश जानता है। बल्कि मुख्यमंत्री के बाद जब मंत्री परिषद का विस्तार और इस विस्तार से पहले कितना अभियान दिया गया यह भी पूरा प्रदेश जानता है। बल्कि मंत्रिमंडल के विस्तार के बाद तो संगठन और सरकार सीधे-सीधे दो अलग ध्रुवों की तरह जनता के सामने आते चले गये। सक्रिय कार्यकर्ताओं को सरकार में सम्मानजनक समायोजन दिया जाये इसके लिये हाईकमान तक से शिकायतें हुई और एक कोआर्डिनेशन कमेटी तक का गठन हुआ लेकिन इस कमेटी से कितनी सलाह ली गयी यह सब भी जग जाहिर हो चुका है। व्यवहारिक रूप से सरकार के सामने संगठन की भूमिका ही नहीं रह गयी है। संगठन की भूमिका ही सरकार के आगे पूरी तरह से गौण हो चुकी है। आज सरकार के सामने संगठन का कोई स्थान ही नहीं रह गया है और निकट भविष्य में इसमें कोई बदलाव आने की भी संभावना नहीं दिख रही है। आज यह स्थिति बन गयी है की सरकार की भी संभावना नहीं दिख रही है। आज यह स्थिति बन गयी है कि सरकार के सामने संगठन की शायद कोई आवश्यकता ही नहीं रह गयी है। इसलिये अगला अध्यक्ष कौन बनता है और उसकी कार्यकारिणी की क्या शक्ल होती है इसका तब तक कोई अर्थ नहीं होगा जब तक सरकार के अपने आचरण में परिवर्तन नहीं होता।
क्योंकि संगठन तो सरकार के फैसलों को जनता में ले जाने का माध्यम होता है। लेकिन आज प्रदेश सरकार जिस तरह के फैसले लेती जा रही है उससे सरकार और आम जनता में लगातार दूरी बढ़ती जा रही है। कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव के दौरान लोगों को जो दस गारंटियां दी थी उनकी व्यवहारिक अनुपालना शून्य है। कांग्रेस का कार्यकर्ता सरकार का क्या संदेश लेकर जनता के बीच में जायेगा। राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जीतने विवादित होते जा रहे हैं उसी अनुपात में प्रदेश सरकार केंद्र पर आश्रित होती जा रही है। प्रदेश भाजपा इस स्थिति का पूरा-पूरा राजनीतिक लाभ उठाती जा रही है। वित्तीय स्थिति इस कदर बिगड़ चुकी है कि उसकी आड़ लेकर केंद्र कब प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू कर दे यह आशंका बराबर बनी हुई है। जिस सरकार के मुख्यमंत्री के अपने प्रभार के विभाग में एक वरिष्ठ अधिकारी की मौत के कारणों की जांच उच्च न्यायालय को सी.बी.आई. को सौंपनी पड़ जाये और वह मौत आत्महत्या की जगह हत्या की ओर इंगित होती जाये उस सरकार की सामान्य स्थिति को क्या कहा जायेगा। यही नहीं इसी सरकार के मुख्य सचिव के सेवा विस्तार का मामला जिस मोड़ पर उच्च न्यायालय में खड़ा है क्या वह केंद्र और राज्य के संबंधों की व्यवहारिकता की ओर एक बड़ा संकेत नहीं है। आने वाले दिनों में प्रदेश सरकार के यह फैसले राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनेंगे यह तय है।
इस वस्तु स्थिति में यह सवाल बराबर ध्यान आकर्षित करता है कि क्या कांग्रेस हाईकमान के सामने प्रदेश के यह मुद्दे नहीं पहुंचे हैं? क्या हाईकमान इतने गंभीर मामलों के बारे में अभी तक अनभिज्ञ ही है? कांग्रेस जहां भी चुनाव में जायेगी वहीं पर उसे कुछ आश्वासन देने पड़ेंगे। कुछ घोषणाएं करनी पड़ेगी। क्या उस समय कांग्रेस हाईकमान की विश्वसनीयता पर हिमाचल की कांग्रेस सरकार का आचरण प्रश्नचिन्ह नहीं लगायेगा? क्या यह हाईकमान के संज्ञान में यथास्थिति लाना प्रदेश प्रभारी की जिम्मेदारी नहीं बनती? क्या किसी प्रदेश की वित्तीय स्थिति और वहां के संसाधनों का अनुमान लगाये बिना क्या कोई चुनावी वायदे किये जाने चाहिए? क्या वित्तीय स्थिति का प्रभाव सरकार के अपने आचरण पर नहीं दिखना चाहिए? इस मानक पर हिमाचल सरकार बुरी तरह उलझी हुई है। आज हिमाचल में कोई भी नेता संगठन की जिम्मेदारी लेने के लिये शायद तैयार नहीं है। कोई भी मंत्री अपना मंत्री पद छोड़कर संगठन की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है और इसी से सरकार के व्यवहारिक प्रभाव का पता चल जाता है।