शिमला/शैल। प्रधानमंत्री द्वारा हिमाचल सरकार की परफॉरमैन्स को महाराष्ट्र और झारखण्ड के चुनाव में भी मुद्दा बनाया गया तब मुख्यमंत्री सुक्खू ने इसका जवाब देते हुए आरोप लगाया है कि भाजपा प्रदेश को बदनाम कर रही है तथा प्रधानमंत्री को भी गलत सूचनाएं दी जा रही हैं। मुख्यमंत्री अपनी सरकार की स्थिति स्पष्ट करने महाराष्ट्र भी गये लेकिन इन्हीं चुनाव के मतदान से पहले एक मामले में प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा हिमाचल भवन दिल्ली को अटैच करने के आदेश जारी हो गये। उच्च न्यायालय के यह आदेश एकदम पूरे देश में चर्चा का विषय बन गये। प्रदेश की वित्तीय स्थिति ठीक होने और पांच चुनावी गारंटीयां लागू कर देने के दावों पर भी स्वतः ही प्रश्न चिन्ह लग गये। यहां पर यह प्रश्न उठता है कि जब प्रदेश उच्च न्यायालय ने यह पैसा जमा करवाने के निर्देश बहुत पहले दे रखे थे तो उनकी अनुपालना क्यों नहीं हुई। जबकि ऐसे मामलों में अपील दायर करने के लिये भी यह शर्त रहती है कि संदर्भित पैसा अदालत की रजिस्ट्री में पहले जमा करवाना पड़ता है। अदालत के फैसले की अनुपालना न करने के लिये कौन अधिकारी जिम्मेदार है। उन्हें चिन्हित करने के निर्देश देते हुये इस रकम का ब्याज इस बीच के समय का उनसे वसूलने के आदेश भी अदालत ने दे रखे हैं। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या सरकार ऐसे अधिकारियों को चिन्हित करके उनके खिलाफ कारवाई करती है या नहीं। इस सरकार के कार्यकाल में आर्विटेशन के जो मामले हुये हैं उनमें शायद पन्द्रह सौ करोड़ की देनदारी सरकार पर आ खड़ी हुई है। सभी मामलों में अधिकारियों के स्तर पर गड़बड़ होने की आशंकाएं सामने आयी हैं। लेकिन किसी के भी खिलाफ जिम्मेदारी तय करने की बात नहीं हुई है। बल्कि सर्वाेच्च न्यायालय से लेकर प्रदेश उच्च न्यायालय तक कई मामलों में सरकार को भारी जुर्माने तक लगे हैं। लेकिन इन मामलों का सरकार के स्तर पर कोई गंभीर संज्ञान नहीं लिया गया। इसी दौरान सीपीएस मामले में फैसला आया है। उच्च न्यायालय ने इन नियुक्तियों को अवैध और असंवैधानिक ठहराते हुये इस आश्य के अधिनियम को भी अवैध करार दे दिया है। 1971 के जिस अधिनियम के तहत इन लोगों को संरक्षण हासिल था उसे भी रद्द कर दिया है। इस मामले में एक दर्जन भाजपा विधायकों की याचिका उच्च न्यायालय में थी। अब इस याचिका के बहाल होने के बाद सीपीएस की विधायकी भी खतरे में आ गयी है। जब याचिकाकर्ता विधायकों की ओर से यह फैसला राज्यपाल के संज्ञान में ला दिया जायेगा तब राजभवन संविधान की धारा 191 और 192 के प्रावधानों के तहत कारवाई करने के लिये बाध्य हो जायेगा। संभावना है कि यह कारवाई सर्वाेच्च न्यायालय में यह मामला सुनवाई के लिए आने तक पूरी हो जायेगी। भाजपा सीपीएस नियुक्तियों को शुरू से ही गैर जरूरी करार देती आयी है। क्योंकि एक ओर तो सरकार वित्तीय संकट के कारण अपने वेतन भत्ते निलंबित करने के लिये बाध्य हो गयी और दूसरी ओर सीपीएस पर करोड़ों खर्च कर रही है। ऐसे में उच्च न्यायालय का फैसला सीपीएस के खिलाफ आने से भाजपा का एक और आरोप प्रमाणित हो गया है। यह फैसला भी महाराष्ट्र और झारखण्ड के मतदान से पहले आया है। इससे भी अनचाहे ही प्रदेश सरकार की परफारमैन्स इन चुनावों में भी चर्चा का विषय बन गयी है। इस फैसले को लेकर भाजपा ने उन तीन कांग्रेस विधायकों को भी लाभ के पद के दायरे में परिभाषित करना शुरू कर दिया है जिन्हें सरकार ने कैबिनेट रैंक दे रखे हैं। बल्कि कैबिनेट रैंक प्राप्त और विधायक भी कल को चर्चा का विषय बन जाएंगे। क्योंकि कैबिनेट रैंक से ही यह लोग मंत्री के बराबर सुविधाओं के पात्र बन जाते हैं।