शिमला/शैल। प्रदेश भाजपा लगातार पिछले तीन चुनाव हार चुकी है। जिसमें पहले चार उपचुनाव, फिर विधानसभा चुनाव और अन्त में नगर निगम शिमला शामिल है। लेकिन इस हार के कारणों पर आज तक कोई औपचारिक प्रतिक्रिया पार्टी की ओर से नहीं आयी है। जबकि राजनीतिक हल्कों में यह सवाल बराबर उठता रहा कि पार्टी को जो सफलता मण्डी में मिली है उसी अनुपात में प्रदेश के दूसरे हिस्सों में क्यों नहीं मिल पायी? क्या मण्डी के बाहर दूसरे जिलों में नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं तक में यह धारणा बन चुकी थी कि हार निश्चित है इसलिये ज्यादा सक्रियता से कोई लाभ मिलने वाला नहीं है। कोई औपचारिक प्रतिक्रिया न आने से चुनाव से पहले मंत्रिमण्डल में फेरबदल कुछ मंत्रियों की छुट्टी और कुछ के विभागों में परिवर्तन किये जाने को लेकर उठते सवाल भी अभी हाशिये पर चले गये हैं हो सकता है कि कुछ समय बाद यह सवाल फिर जवाब मांगे। क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी हिमाचल के बाद जिस तरह कर्नाटक हारी है उससे ‘‘मोदी है तो मुमकिन है’’ पर पहली बार प्रश्न चिन्ह लगा है। यह प्रश्न चिन्ह लगने के बाद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा पहली बार अपने गृह राज्य हिमाचल आये। हिमाचल आकर नड्डा ने जिस तरह जनता और कार्यकर्ताओं की नब्ज टटोलने के उपक्रम में प्रदेश के सबसे बड़े जिले कांगड़ा में रैली का आयोजन करवाया और उसमें जिस तरह सारे प्रयासों के बावजूद सबसे कम भीड़ जुटी उससे यह प्रमाणित हो गया है कि भाजपा के प्रति लोगों की उदासीनता अभी भी बरकरार है। विधानसभा चुनाव के बाद जब पूर्व मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर प्रोटैम स्पीकर के हाथों ही विधायकों की शपथ से पहले ही नेता प्रतिपक्ष बन गये और उस समय भी भाजपा के ही कुछ हलकों में इस पर हैरत जताई गयी थी। क्योंकि कुछ दूसरे नेता भी नेता प्रतिपक्ष होने की इच्छा पाले हुये थे लेकिन उन्हें अपनी इच्छा जताने तक का मौका भी नहीं मिल पाया। इसी परिदृश्य में जब सरकार ने पूर्व सरकार के अन्तिम छः माह के फैसले बदलते हुये करीब 900 संस्थान बन्द कर दिये तब भाजपा ने इसके खिलाफ पूरे प्रदेश में धरने प्रदर्शनों का क्रम शुरू कर दिया। अन्त में इस संबंध में एक याचिका भी प्रदेश उच्च न्यायालय में डाल दी। लेकिन याचिका डालने के बाद इस मुद्दे पर शान्त होकर बैठ गयी। इसी तरह मुख्य संसदीय सचिवों को लेकर भी उच्च न्यायालय में याचिका तो डाल दी गयी है लेकिन प्रदेश की जनता को इस पर जानकारी नही दी गयी कि मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां गलत क्यों है। उस पर शान्त होकर बैठ जाना भी पार्टी के भीतर की एकजुटता पर सवाल खड़े करता है। इस समय प्रदेश वित्तीय संकट से गुजर रहा है। इस संकट के लिये सुक्खू सरकार पूर्व की जयराम की सरकार के वित्तीय कुप्रबंधन को जिम्मेदार ठहरा रही है। इसी के साथ केन्द्र सरकार पर प्रदेश की कर्ज लेने की सीमा कटौती राज्य सरकार को वित्तीय संकट में डालने का आरोप लगाया जा रहा है। वित्तीय संकट के लिये भाजपा पर लगते यह आरोप गंभीर हैं। क्योंकि प्रदेश की आम जनता को इससे नुकसान हो रहा है। लेकिन इन आरोपों का कोई तथ्य पूरक जवाब भाजपा की ओर से अभी तक नहीं आ पाया है। बल्कि पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के यह कहने से कि केन्द्र के सहयोग के बिना राज्य सरकार एक कदम नहीं चल सकती इन आरोपों की अपरोक्ष में पुष्टि हो जाती है। वित्तीय संकट का प्रभाव पूरे प्रदेश पर पड़ रहा है इसलिये बतौर जिम्मेदार विपक्ष यह भाजपा का नैतिक दायित्व बन जाता है कि वह इस पर स्थिति स्पष्ट करे। यह सही है कि राजनीतिक प्रतिद्वन्दी होने के नाते भाजपा को अपना राजनीतिक हित भी सुरक्षित रखना है। लेकिन वर्तमान परिदृश्य में यदि भाजपा अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं करती है तो उस पर जिम्मेदार विपक्ष न होने का आरोप लगना तय है।