कांग्रेस का आंकड़ा पचास तक पहुंचने का अनुमान

Created on Sunday, 04 December 2022 14:21
Written by Shail Samachar
उपचुनावों के बाद भी महंगाई और बेरोजगारी में कोई कमी नहीं आयी
मतदान के दूसरे ही दिन मुख्यमन्त्री के प्रधान सचिव का दिल्ली चले जाना क्या संकेत है?
सरकार के वित्त सचिव का कांग्रेस नेता से सहायता मांगना क्या संकेत है?
कांग्रेसी की गारन्टीयों के परिणाम स्वरूप महिला मतदाताओं की संख्या रही ज्यादा
सरकार की उज्जवला पर महिलाओं को प्रतिमाह पन्द्रह सौ का वायदा
ओ.पी.एस. बहाली की गारन्टी ने बदले कर्मचारी
शिमला/शैल। मतदान और मतगणना के बीच जितना अन्तराल इस बार आया है इतना शायद पहले कभी ही रहा है। यह अन्तराल इतना लम्बा क्यों रखा गया इसका कोई समुचित तर्क सामने नहीं आ पाया है। इसी अन्तराल के कारण ई.वी.एम. मशीनों की सुरक्षा पर सवाल उठे। चुनाव आयोग को ऊना में इनकी सुरक्षा के लिये स्वयं टैन्ट लगाने पड़े। पोस्टल बैलट भी सवालों के घेरे में आ गये हैं। ऐसा क्यों हुआ है इसके लिये कोई संतोषजनक कारण सामने नहीं आये हैं। इस मतदान के दूसरे ही दिन मुख्यमन्त्री के प्रधान सचिव ने दिल्ली जाने की अनुमति सरकार से हासिल कर ली। चुनाव परिणामों तक भी इन्तजार नहीं किया। सरकार के वित्त सचिव ने कांग्रेस की प्रचार कमेटी के अध्यक्ष से सहायता की गुहार लगा दी। गुहार का यह आग्रह वायरल भी हो गया। चुनाव परिणामों से पहले ही यह सब घट जाने को कैसा राजनीतिक संकेत माना जाना चाहिये यह पाठक स्वंय तय कर सकते हैं।
2017 में जयराम ठाकुर के नेतृत्व में बनी भाजपा सरकार ने 2019 में लोकसभा चुनाव का सामना किया। हिमाचल समेत पूरे देश में इन चुनावों में भाजपा ने इतिहास रचा। इन चुनावों के कारण सुरेश कश्यप और किशन कपूर की विधानसभा सीटें खाली हुई और यह उपचुनाव भी भाजपा जीत गयी। लेकिन इसके बाद जब सरकार की परफारमैन्स जनता के सामने व्यवहारिक रूप से आती चली गयी तो इसका पहला प्रभाव नगर निगम चुनावों में देखने को मिला और सरकार चार में से दो नगर निगम हार गयी। इसके बाद हुये एक लोकसभा और तीन विधानसभा उपचुनावों में भाजपा चारों उपचुनाव हार गयी। इस हार पर तात्कालिक प्रतिक्रिया में महंगाई को मुख्यमंत्री ने हार का कारण माना था। क्या इन उपचुनावों के बाद महंगाई कम हुई है? क्या युवाओं को बड़े स्तर पर रोजगार उपलब्ध हो पाया है? क्या मनरेगा में सरकार रोजगार उपलब्ध करवा पायी है? जब चारों उपचुनावों के बाद परिस्थितियों में कोई व्यवहारिक रूप से बदलाव आया ही नहीं है तो आज जनता का समर्थन किस आधार पर मिल पायेगा?
केन्द्र और प्रदेश में दोनों जगह भाजपा की सरकार होने के नाम पर क्या कोई आर्थिक पैकेज प्रदेश को मिल पाया है शायद नहीं। बल्कि आज मुख्यमन्त्री को चुनावों के बाद केन्द्र से जी.एस.टी. की प्रतिपूर्ति की मांग करनी पड़ी है। बल्कि जो कुछ भी कथित रूप से मिला है वह सैद्धान्तिक स्वीकृतियों से आगे नहीं बढ़ा है। प्रधानमन्त्री ग्रामीण सड़क योजना बन्द होने से दो सौ ग्रामीण सड़कें अधर में लटकी हुई हैं। क्या ग्रामीण इस स्थिति को भोग नहीं रहे हैं। इस परिदृश्य में हुए चुनावों में पार्टी को दो दर्जन बागियों का सामना करना पड़ा है। जिन सिद्धान्तों के नाम पर अन्य दलों से अपने को भिन्न होने का दावा करते थे इस चुनाव में उन सबकी बलि ले ली है और आम आदमी इस बात को समझ चुका है कि इनकी करनी और कथनी में कितना अन्तर है। कांग्रेस में तोड़फोड़ की नीति भी नामांकन भरे जाने तक ज्यादा कारगर सिद्ध नहीं हुई है। बल्कि कांग्रेस से भाजपा में गये नेताओं को भाजपाइयों का कितना सहयोग मिल पाया है इसका खुलासा पवन काजल के वायरल हुए पत्र से लग जाता है।
उज्जवला जैसी योजनाओं के लाभार्थियों की प्रदेश भर में हुई रैलीयों में जितनी परेड जगह-जगह करवाई गयी उसकी काट कांग्रेस ने महिलाओं को प्रतिमाह पन्द्रह सौ रुपए देने की जो गारन्टी दी है वह निश्चित तौर पर भाजपा की योजनाओं पर भारी पड़ी है। इसी कारण महिला मतदाताओं की संख्या करीब पांच प्रतिश्त पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा रही है। ओ.पी.एस. की बहाली की गारन्टी ने कर्मचारियों की बहूप्रतिक्षित मांग को पूरा किया है जबकि भाजपा इस अहम मुद्दे पर अन्त तक स्पष्ट नहीं हो पायी है। इस परिदृश्य में हुये रिकॉर्ड तोड़ मतदान को बदलाव का सीधा संकेत माना जा रहा है। बल्कि बदलाव के लिये इस मतदान को एक तरफ माना जा रहा है। आंकड़ों के गणित में यह माना जा रहा है कि कांग्रेस इसमें पचास सीटों पर जीत दर्ज कर सकती है। शिमला, सोलन, कुल्लू, बिलासपुर और ऊना में भाजपा को ज्यादा नुकसान होने का अनुमान है। भाजपा इस स्थिति से बाहर निकलने के लिये कांग्रेस के अन्दर बड़े स्तर पर तोड़फोड़ की रणनीति पर चल रही है और इसका संकेत अब निर्दलीयों के सर्वे का आंकड़ा उछाले जाने को माना जा रहा है। यह लग रहा है कि मीडिया के माध्यम से एक नयी पृष्ठभूमि तैयार की जा रही है। जबकि विश्लेषक इस चुनाव में निर्दलीयों को नहीं के बराबर मान रहे हैं।