चुनाव समीक्षा के बाद शीर्ष नेताओं के दावों में भिन्नता क्यों
समीक्षा में बीस प्रत्याशी ही जीत के प्रति आश्वस्त हो पाये
शिमला/शैल।मतदान के बाद राजनितिक दल चुनावी समीक्षाओं में व्यस्त हो गये हैं और ऐसा होना स्वभाविक भी है। हिमाचल का हर चुनाव भाजपा कांग्रेस और आप सभी के लिए अलग-अलग महत्व रखता है। इस चुनाव में यदि आप को कुछ मिल जाता है तो इससे उसकी राष्ट्रीय पार्टी बनने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। लेकिन इसके लिए आप अभी इंतजार कर सकती है और इसीलिए शायद उसने चुनाव के अन्त तक अपनी रणनीति ही बदल ली। भाजपा और कांग्रेस के लिये सीधी लड़ाई का रास्ता साफ कर दिया। भाजपा यदि यह चुनाव हार जाती है तो इसका सीधा प्रभाव हरियाणा पर पड़ेगा। क्योंकि दिल्ली और पंजाब पहले ही उसके हाथ से निकले हुए हैं। उत्तराखंड में हारे हुए आदमी को उपचुनाव लड़ा कर मुख्यमंत्री बनाना पड़ा है। कांग्रेस की स्थिति भी ऐसी ही है। हिमाचल हारने पर उसके पास पूरे क्षेत्र में पांव रखने के लिए जगह नहीं रहती। कांग्रेस और भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व इस स्थिति को समझता है। इसलिये भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व प्रदेश में लंगर डालकर बैठ गया। प्रधानमंत्री को एक दर्जन रैलियां सम्बोधित करनी पड़ी तथा राष्ट्रीय अध्यक्ष को परिवार सहित बिलासपुर में डेरा डालना पड़ा। जबकि कांग्रेस ने इस चुनाव में भी स्व. वीरभद्र सिंह के प्रति पनपी सहानुभूति को पूरी तरह भुनाने में कोई कसर नहीं रखी।
इस पृष्ठभूमि में संपन्न हुए प्रदेश के चुनाव में भाजपा चारों उपचुनावों में शून्य होने के तमगे से बाहर ही नहीं निकल पायी। मुख्यमंत्री लाभार्थियों की रैलियों के गणित में ऐसे उलझे की यह भूल ही गये कि हर चीज की एक सीमा होती है। यह सीमाएं लांघने का ही परिणाम था कि प्रधानमंत्री की धर्मशाला की अंतिम रैली बुरी तरह असफल रही। कांग्रेस को जिस स्तर तक तोड़ने की योजना बना रखी थी वह पूरी तरह फेल हो गयी। बल्कि टिकट आवंटन के बाद जिस तरह की बागियों की समस्या से भाजपा को जूझना पड़ा उससे उनके प्रबंधकीय कौशल का भी जनाजा निकल गया। मुख्यमंत्री को यह मानना पड़ा कि एक दर्जन बागी भाजपा को नुकसान पहुंचा सकते हैं। मतदान के बाद बागियों से संपर्क बनाने के प्रयासों के बयान इसी हताशा का परिणाम है। इसलिये बागियों को लेकर पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के ब्यान अन्त विरोधी होकर सामने आ रहे हैं। मुख्यमंत्री बागियों से संपर्क में होने की बात कर रहे हैं तो प्रदेश प्रभारी बागियों के बिना ही अपने दम पर सरकार बनाने की बातें कर रहे हैं। शीर्ष नेताओं के परस्पर भिन्न ब्यानों से ही स्पष्ट हो जाता है कि परिणामों को लेकर सबकी एक राय नहीं है।
यह चुनाव पार्टी की नीतियों पर न होकर सरकार की पांच वर्ष की कारगुजारी पर हुए हैं। सरकार को पांच वर्षों में सात मुख्य सचिव क्यों बनाने पड़े इस सवाल का जवाब अन्त तक नहीं आया है। इस सवाल पर सरकार और संगठन में पांच वर्षों में कोई जुबान नहीं खोल पाया है कि लोकसेवा आयोग में जनवरी 2018 में की गयी नियुक्ति कार्यकाल के अन्त तक गले की हड्डी क्यों बनी रही? सरकार के इन कदमों का प्रशासनिक कुशलता पर ऐसा कुप्रभाव पड़ा जो अन्त तक सूलझ ही नहीं पाया। इस परिदृश्य में हुई चुनावी समीक्षा में कोई कितनी सपष्टता से अपनी बात रख पाया होगा इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। वैसे सूत्रों के मुताबिक इस समीक्षा में भी बीस से अधिक प्रत्याशी अपनी जीत का भरोसा नहीं दिला पाये हैं। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि अन्त में व्यवहारिक स्थिति क्या रहने वाली है। वैसे तो अभी गुजरात और दिल्ली एम सी डी के चुनावों के परिपेक्ष में यह दावा करना राजनीतिक आवश्यकता बन जाता है कि हिमाचल में भाजपा सत्ता में वापसी कर रही है। क्योंकि हिमाचल के अधिकांश नेताओं की दिल्ली में चुनाव प्रचार में जिम्मेदारियां लगी हुई हैं। इन प्रचार में जिम्मेदारियों के कारण हिमाचल में जीत का दावा करना राजनीतिक आवश्यकता बन जाता है।