क्या जयराम सरकार मीडिया पॉलिसी बनाने के प्रति गंभीर है

Created on Tuesday, 01 February 2022 04:01
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। पिछले दिनों वेब साइट्स के मीडिया कर्मियों ने मुख्यमंत्री से मिलकर उन्हें एक ज्ञापन सौंपा था और वेबसाइट के लिए पॉलिसी बनाने की मांग की थी। इन मीडिया कर्मियों का आरोप था कि पिछले 4 साल से जयराम सरकार लगातार पॉलिसी बनाने का आश्वासन देती आ रही है। लेकिन व्यवहार में कुछ नहीं हुआ है। इस ज्ञापन के बाद अब अतिरिक्त मुख्य सचिव सूचना एवं जनसंपर्क विभाग की ओर से एक विज्ञप्ति जारी करके यह कहा गया है कि वित्त विभाग ने यह पॉलिसी बनाये जाने के लिये अपनी सहमति दे दी है। इस पर 15 फरवरी तक मीडिया कर्मियों से सुझाव मांगे गये हैं। यह सुझाव आने के बाद पॉलिसी का फाईनल ड्राफ्ट तैयार होगा और वर्ष के अंत तक पॉलिसी बनकर तैयार होगी। इसी बीच अतिरिक्त मुख्य सचिव सूचना एवं जनसंपर्क विभाग अभी सेवानिवृत्त हो जायेंगे। उनके स्थान पर नया सचिव नियुक्त होगा और उसे भी इस मामले को समझने के लिए कुछ समय चाहिए ही होगा। उसके बाद चुनाव आचार संहिता लागू हो जाएगी और फिर पॉलिसी बनाने का यह काम अगली सरकार के लिए छोड़ दिया जायेगा। सरकारी तंत्र की कार्यशैली को समझने वाले अच्छी तरह से जानते हैं कि यही होगा। हो सकता है मुख्यमंत्री को यह जानकारी ही न हो कि सूचना एवं जनसंपर्क विभाग को कोई और ही ताकत संचालित कर रही है अन्यथा कोई भी मुख्यमंत्री ऐसे क्यों करेगा कि वह विज्ञापनों को लेकर सदन में पूछे गये सवाल का हर बार यही उत्तर दें कि सूचना एकत्रित की जा रही है। जबकि हर आदमी जानता है कि किसे करोड़ों के विज्ञापन सरकार ने दिये और किसे एक पैसे का भी विज्ञापन नहीं मिला।
इस परिदृश्य में यदि पॉलिसी के लिए सुझाव की बात की जाये तो सबसे पहले नीति निर्माताओं को यह समझना होगा कि सूचना एवं जनसंपर्क होता क्या है। क्या विभाग के सचिव और निदेशक का अपना कोई जनता से संपर्क होता है? क्या कभी इन लोगों ने जन से संपर्क बनाने का प्रयास किया है? शायद नही। यदि कोई संपर्क होता तो इन्हें सरकार की नीतियों की जमीनी हकीकत पता होती। यह विभाग प्रशासनिक अधिकारियों का काम नहीं है यह समझना जरूरी है। जनसंपर्क का दूसरा बड़ा हिस्सा है सूचना। यह सूचना प्राप्त करने के लिये जनता से संपर्क और संवाद चाहिये। जनता अपने भीतर की बात तब खुलकर बताती है जब उसे सुनने वाले पर विश्वास हो। हर पीड़ित व्यक्ति इस स्थिति में नहीं होता है कि वह प्रशासन के सामने बेबाकी से अपनी बात रख सके क्योंकि उसकी शिकायत का आधार कारण ही संबद्ध प्रशासन का व्यवहार होता है। लेकिन प्रशासन सच्चाई सुनने और झेलने को तैयार नहीं होता है। इसलिए जनप्रतिनिधियों मंत्रियों या मुख्यमंत्री के पास कभी भी सही जानकारी पहुंचती ही नहीं है। इसी में गोदी मीडिया की भूमिका आ जाती है। वह प्रशासन द्वारा परोसी गई जानकारी ही जनता की स्थिति बनाकर राजनेताओं को परोस देता है और उसी को सब अंतिम सच मानकर चल पड़ते हैं। यही कारण है कि मीडिया द्वारा सब हरा ही हरा दिखाने के बाद परिणाम भयंकर सूखे के रूप में सामने आता है। आज मीडिया ने सत्ता से सवाल पूछने की बजाये विपक्ष से सवाल करने की नीति अपना रखी है क्योंकि उसे सत्ता और उसके माध्यम से करोड़ों के विज्ञापन चाहिये। आज मीडिया जनता का पैरोकार होने के बजाय सत्ता का संदेशवाहक होकर रह गया है। यहां फिर नीति निर्माताओं को यह तय करना होगा कि वह किस का पक्षधर होकर नीति बनाना चाहते हैं जनता या सत्ता का।
आज भी जनता अपना दुख मीडिया के माध्यम से सत्ता तक पहुंचाना चाहती है। जो तीखा सवाल जनता सत्ता से सीधा नहीं पुछ पाती है वहां वह सवाल मीडिया से अपेक्षा करती है कि वह पूछे। जो मीडिया सत्ता से तीखा सवाल पूछने का साहस करता है। दस्तावेजी प्रमाण सार्वजनिक रूप से सामने रखता है उसे सत्ता का दुश्मन मान कर उसका गला घोंटने का प्रयास किया जाता है। लेकिन जो मीडिया सत्ता की नाराजगी से न डर कर जनता के साथ खड़ा रहता है वही जनता का विश्वसनीय बन जाता है और उसके आकलन सही प्रमाणित होते हैं। लेकिन सत्ता को वह मीडिया चाहिये जो उसके स्वर में स्वर मिलाकर तबलिगी समाज को कोरोना बम्ब करार दे। हिमाचल में सत्ता और जनता के बीच इसी गोदी मीडिया के कारण इतनी दूरी बन चुकी है जिसे पाट पाना वर्तमान सत्ता के वश में नहीं रह गया है। पहले चार नगर निगम और उसके बाद विधानसभा लोकसभा उपचुनाव में यह सामने आ भी चुका है। आज मीडिया से जुड़ा हर आदमी यह जानता है कि इसका नीति संचालन इन अधिकारियों के हाथ में है ही नहीं। यह तो उस संचालक के हाथों की कठपुतली बनकर अपनी पोस्टिंगज के जुगाड़ में लगे हुये हैं। क्योंकि कुछ को सेवानिवृत्ति के बाद भी पद चाहिये। ऐसे लोगों के हाथों यह उम्मीद करना संभव ही नहीं है कि सरकार मीडिया पॉलिसी बनाने के प्रति ईमानदार हो सकती है। क्योंकि चुनावों में प्रतिष्ठा अधिकारियों की नहीं बल्कि राजनेताओं की होती है। अन्यथा मीडिया की पहली आवश्यकता यही होती है कि उसके साथ विज्ञापनों के आवंटन में पक्षपात न हो। लघु समाचार पत्रों के लिये केंद्र ने यह नियम बना रखा है कि वह प्रिंट के साथ अपनी वेबसाइट भी अवश्य बनायें। प्रिंट के साथ सोशल मीडिया के मंचों पर भी जो नियमित रूप से उपलब्ध रहे उसे प्राथमिकता दी जानी चाहिये। क्योंकि सवाल तो ज्यादा से ज्यादा प्रसार का है। चाहे वह सरकार की नीतियों का हो या उससे सवाल पूछने का। लेकिन जिस सरकार में पत्रों का जवाब देने का ही चलन न हो उससे निष्पक्ष नीति और उस पर निष्पक्ष अमल की उम्मीद कितनी की जानी चाहिये।