क्या हिमाचल में भी गुजरात घटेगा-विधानसभा चुनाव फरवरी -मार्च में करवाने की अटकलें बढ़ी

Created on Tuesday, 14 September 2021 05:57
Written by Shail Samachar

नगर निगमों के बाद अब विश्व विद्यालय में हारी भाजपा
नेताओं के पत्रों पर हुए कर्मचारियों के तबादले उच्च न्यायालय ने किये रद्द
किसानों की आय दोगुणी करने का वायदा करने वाली सरकार सब्सिडी का भुगतान ही नहीं कर पायी
शिमला/शैल। प्रदेश में होने वाले चारों उपचुनाव टाल दिये गये हैं। चुनाव आयोग ने यह फैसला राज्य के मुख्य सचिव, स्वास्थ्य सचिव, डीजीपी और मुख्य निर्वाचन अधिकारी से चर्चा करने के बाद लिया है ऐसा इस संद्धर्भ में आये प्रैस नोट में कहा गया है। अब यह उपचुनाव कब होंगे इसके बारे में कुछ नहीं कहा गया है। प्रदेश विधानसभा के लिये चुनाव अगले वर्ष दिसम्बर में कार्यकाल पूर्ण होने के बाद होंगे। इस नाते अभी भी इन चुनावों के लिये सोलह माह का समय बचा है। जबकि उपचुनावों के लिये जो स्थान खाली हुए हैं उनमें फतेहपुर के लिये फरवरी में, मण्डी लोकसभा के लिये मार्च, जुब्बल कोटखाई के लिये जून और अर्की के लिये जुलाई 2022 में क्रमशः एक वर्ष पूरा हो जायेगा। जन प्रतिनिधि अधिनियम 1951 की धारा 151 A के अनुसार उपचुनाव स्थान खाली होने के छः माह के भीतर करवा लिया जाना अनिवार्य है। यदि शेष कार्यकाल का समय ही एक वर्ष से कम बचा हो तो भारत सरकार के साथ विचार-विमर्श करके चुनाव आयोग ऐसे उपचुनाव को टाल सकता है। लेकिन विधानसभा के तीनों रिक्त स्थानों के लिये डेढ वर्ष से अधिक का समय शेष है और मण्डी लोकसभा के लिये तो तीन वर्ष से अधिक का समय रहता है। इसलिये यह स्पष्ट है कि यह सारे उपचुनाव तो करवाने ही पड़ेंगे क्योंकि एक वर्ष से अधिक समय के लिये टालने का कोई प्रावधान नहीं है। ऐसा करना एक संवैधानिक संकट को न्यौता देना हो जायेगा। इस समय देशभर में तीन लोकसभा और बत्तीस विधानसभा सीटां के लिये उपचुनाव टाले गये हैं जो आगे करवाना अनिवार्य हो जायेंगे।


अगले वर्ष 2022 में आठ विधानसभाओं और राष्ट्रपति तथा उप राष्ट्रपति के लिये चुनाव होने हैं। चुनावों का यह सिलसिला फरवरी -मार्च 2022 से ही शुरू हो जायेगा और दिसम्बर तक चलता रहेगा। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के लिये फरवरी में चुनाव होने हैं। उत्तर प्रदेश के परिणाम पूरे देश की राजनीति को प्रभावित करते हैं। बंगाल चुनावों के बाद भाजपा के चुनावी मनोबल में कमी आई है। अभी पिछले दिनों प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता को लेकर इण्डिया टूडे का एक सर्वे आया है उसमें प्रधानमन्त्री का ग्राफ 66 से लुढक कर 24% तक आ गया है। सी वोटर के सर्वे में कुछ राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनती बताई गयी है। किसान आन्दोलन पूरे देश की राजनीति को प्रभावित कर रहा है। सरकार इसके प्रभाव से प्रभावित हो रही है इसका ताजा उदाहरण करनाल में सामने आ गया है जहां पांच दिन बाद सरकार को सारी मांगे माननी पड़ गयी है। इसी तेजी से बदलते राजनीतिक परिदृश्य का परिणाम है कि भाजपा ने छः माह के समय में ही अपने मुख्यमन्त्री बदल दिये। उत्तराखण्ड में दो मुख्यमन्त्री बदल दिये। मुख्यमन्त्रीयों के इस बदलाव को यह रणनीति माना जा रहा है कि चुनावों से पहले मुख्यमन्त्री को बदल दो ताकि सारी प्रशासनिक नकारात्मकता मुख्यमन्त्री के साथ ही चर्चा से बाहर हो जाये।
इसी गणित में यदि हिमाचल का आकलन किया जाये तो पिछले दिनों प्रदेश की चार नगर निगमों के लिये हुए चुनावों में भाजपा दोनों में हार गयी थी। 2014 के बाद यह पहली हार है। अब विश्वविद्यालय में मिली हार से यह सामने आ गया है कि कर्मचारियों और अधिकारियों में भाजपा अपना विश्वास खो चुकी है। विश्वविद्यालय में जिस तरह पिछले दिनों हुई नियुक्तियों को लेकर सवाल उठे हैं उसका परिणाम इन चुनावों में सामने आ गया है। अब तो कर्मचारियों के तबादलों में जिस तरह से भाजपा विधायक को और दूसरे नेताओं का बढ़ता दखल उच्च न्यायालय तक जा पहुंचा है उस पर उच्च न्यायालय ने जिस तरह से अपनी नाराज़गी जताई है उससे सरकार को जो झटका लगा है उससे उबरने का कोई अवसर अब सरकार के पास नहीं बचा है। सेब के प्रकरण में जब से यह सामने आया है कि निजक्षेत्र के कोल्ड स्टोर मालिकों पर उत्पादकों के लिये इन स्टोरों में 20% जगह उपलब्ध रखने की शर्त तो लगा दी लेकिन उस शर्त को बागवानों के हितों में न तो कभी प्रचारित किया गया न ही उस पर अमल करवाया गया। 2022 में किसानों की आय दोगुणी करने के दावों के बीच बागवानों को यह सरकार सब्सिडी तक नहीं दे पायी है। बागवानी और कृषि मन्त्री दोनों इस पर चुप हैं इस तरह चुनावी गणित से देखते हुए सरकार के पक्ष में धरातल पर ऐसा कुछ भी नजर नहीं आता जिसका लाभ चुनावों में मिल सके। वैसे भी अब चौथे वर्ष में जाकर चुनाव क्षेत्रों में घोषणाएं की जा रही हैं जिनका चुनावों तक अमली शक्ल ले पाना संभव ही नहीं है। ऐसे में उपचुनावों में सफलता मिलना आसान नहीं है और इनमें असफलता का असर आम चुनावों पर पड़ना तय है। इस पदिश्य में यह माना जा रहा है कि अगले वर्ष होने वाले सारे विधान सभा चुनावों को यूपी के साथ ही फरवरी -मार्च में ही करवा लिया जाये। इस गणित में यह संभावना भी बल पकड़ रही है कि भाजपा कुछ अन्य प्रदेशों में भी गुजरात जैसे फैसले ले सकती है।