प्रदेश में तीन वर्षों में हुई 1,34,430 मौतों का जबाव क्या है

Created on Tuesday, 01 December 2020 16:34
Written by Shail Samachar

कोरोना के संद्धर्भ में उठते सवाल
तब कोई लाॅकडाऊन क्यों नही हुआ था
क्या शासन-प्रशासन तब गैर जिम्मेदार था
जब शून्य आंकड़ों पर लाॅकडाऊन था तो अब चालीस हज़ार पर क्यों नही?
जब राजनीतिक गतिविधियां चल रही हैं तो अन्य पर पाबन्दी क्यों?

शिमला/शैल। प्रदेश में कोरोना के आंकड़े हर रोज़ जिस तेजी से बढ़ रहे हैं और सरकार के प्रबन्ध उसी अनुपात में नाकाफी सिद्ध हो रहे हैं उससे कोरोना को लेकर अपनाई जा रही नीति के साथ नीयत पर भी सवाल उठने शुरू हो गये हैं। केन्द्र से लेकर राज्य तक दोनों पर एक साथ सवाल उठ रहे हैं। क्योंकि जब लाॅकडाऊन लगाकर इसे फैलाने से रोकने का दावा किया गया था तब देशभर में इसके केवल पांच सौ मामले थे और प्रदेश में यह आंकड़ा शून्य था। लाॅकडाऊन लगाने कीे देश की जनता को कोई पूर्व सूचना नही दी गयी थी। जब महामारी अधिनियम के अनुसार एक सप्ताह का समय दिया जाना चाहिये था। यदि यह एक सप्ताह का समय दे दिया जाता तो शायद प्रवासी मज़दूरों की समस्या का आकार भी इतना न बढ़ता। यह पहली नीति संबंधी बड़ी गलती थी। यहीं पर एक और गलती हो गयी और वह यह भी कि जब पूर्व में महामारीयां आती रही हैं तब किस तरह के कदम उठाकर उनका सामना किया जाता रहा है। पिछले सौ वर्षों का इतिहास बताता है कि हर दस पन्द्रह वर्ष के अन्तराल के बाद कोई न कोई महामारी विश्व के किसी न किसी हिस्से में आती रही है और पूरा विश्व उससे प्रभावित होता रहा है। यह सारा रिकार्ड उपलब्ध है इसे देखने समझने का प्रयास न राजनीतिक नेतृत्व ने किया और न ही प्रशासनिक नेतृत्व ने। 

स्वाईन फ्लू इसका सबसे ताजा उदाहरण है। अमेरिका से शुरू हुई इस महामारी ने भारत को 2015 से 2017 तक ज्यादा प्रभावित किया। हिमाचल में तो फरवरी 2020 तक इसके केस रहे। आईजीएमसी, धर्मशाला और मण्डी में इसके ग्याहर मामले थे। 2019 में मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर ने ही एक पत्रकार वार्ता करके इसके लिये अलग से आईसीयू बैड की व्यवस्था करने के निर्देश दिये हुए हैं। हर जन्म और मृत्यु का पंजीकरण होता है यह नियम है। अस्पताल में जिस मरीज की मृत्यु हो जाती है उसकी मृत्यु पर अस्पताल सर्टीफिकेट जारी करता है। 2015 में देशभर में अस्पतालों के बाहर जो मौतें हुई हैं उनका आंकड़ा था 62,67,685, 2016 में 63,49,259, 2017 में 6463779 और 2018 में 6950607. हिमाचल प्रदेश में अस्पतालों से बाहर हुई मौतों का आंकड़ा 2015 में 41462, 2016 में 35819, 2017 में 39114 और 2018 में 41833. प्रदेश के अस्तपालों में मरने वालों का आकड़ा 2015 में 5152, 2016 में 5685, 2017 में 5690 और 2018 में 6289. यह आंकड़े केन्द्र सरकार के गृह मन्त्रालय द्वारा तैयार की गयी और गृह मन्त्री द्वारा संसद में रखी गयी रिपोर्ट में दर्ज हैं।

जब इतनी मौतें हो रही थी तब आज की तरह लाॅकडाऊन आदि के कदम क्यों नही उठाये गये थे? क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिये? तब भी यही प्रशासन और राजनीतिक नेतृत्व था। हिमाचल में ही इन तीन वर्षों में 1,32,922 मौतें हुई हैं। क्या उस दौरान प्रदेश में किसी ने भी इसका संज्ञान लेकर कोई हाय तोबा मचाई शायद नही? क्या उस समय का शासन प्रशासन गैर जिम्मेदार था। डाक्टरों के मुताबिक स्वाईन फ्लू कोरोना से गंभीर था। उसका संक्रमण ज्यादा भयानक था। आज कोरोना को लेकर बचाव के जो उपाय सुझाये जा रहे हैं वह एक सामान्य फ्लू वाले ही हैं। किन्ही भी दो विशेषज्ञों की राय एक नही है। क्योंकि किसी भी बिमारी में उसका ईलाज खोजने के लिये उससे हुई मौतों का पोस्टमार्टम करके पूरी जांच की जाती है। लेकिन कोरोना के मृतकों का कोई पोस्टमार्टम नही किया गया। जब इटली ने इसमें पोस्टमार्टम की शुरूआत की तब हमारे यहां पोस्टमार्टम शुरू हुए हैं जिनकी रिपोर्ट अभी तक नही आयी है। इटली की रिपोर्ट जो सोशल मीडिया के मंच से बाहर आयी है उसे फैक्ट चेक में फेक नही कहा गया है केवल उसके दावों को गलत कहकर डब्ल्यूएचओ के पक्ष को सही ठहराने का प्रयास किया जा रहा है। आज कोरोना को लेकर जिस तरह के डर का माहौल खड़ा हो गया है उस डर से बाहर निकलने के सारे रास्ते बन्द कर दिये गये है क्योंकि यह डर किसी व्यक्ति द्वारा नही बल्कि स्वयं सरकार द्वारा फैलाया गया है और सरकार इसे अपनी नीतिगत गलती मानने को तैयार नही हैं।
इस परिदृश्य में यदि प्रदेश का आकलन किया जाये तो इस समय कोरोना के संक्रमितों का आंकड़ा चालीस हज़ार पार कर चुका है। यह आंकड़ा कंहा जाकर रूकेगा यह कहना कठिन हैं इन बढ़ते आंकड़ों के परिणाम स्वरूप प्रदेश के शैक्षणिक संस्थान 31 दिसम्बर तक बन्द है। सरकारी कार्यालयों में 31 दिसम्बर तक हर शनिवार घर से ही काम करने का फैसला लिया गया है। समारोहों में अधिकतम संख्या 50 कर दी गयी है और प्रशासन यह सुनिश्चित कर रहा है कि मास्क न पहनने पर जुर्माने के साथ जेल का भी प्रावधान जोड़ दिया गया है। अब तक करीब दो करोड़ का जुर्माना वसूला जा चुका है। उच्च न्यायालय सरकार से प्रबन्धों पर लगातार रिपोर्ट तलब कर रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी केन्द्र से लेकर राज्यों तक से प्रबन्धों पर शपथपत्र दायर करने को कहा है। इस तरह बढ़ते आंकड़ों के परिदृश्य में जो भी कदम उठाये गये हैं उनसे महामारी की गंभीरता और उसी अनुपात में आम आदमी के मन में इसके प्रति बढ़ता डर दोनांे एक साथ सामने आ जाते हैं। यहीं से यह सवाल भी स्वभाविक रूप से उठता है कि जब आंकड़ों की संख्या देश में पांच सौ और प्रदेश में शून्य थी तब तो लाॅकडाऊन कर दिया गया तो अब क्यों नही? क्या इस दौरान बिमारी से निपटने के लिये सक्षम साधन जुटा लिये गये हैं? व्यवहार में तो साधनों पर लगातार सवाल उठ रहे हैं।
इसी के साथ एक बड़ा सवाल यह खड़ा हो रहा है कि इन बढ़ते आंकड़ो के बावजूद राजनीतिक गतिविधियों पर कहीं कोई विराम नही लग रहा है। इसमें भी सत्तापक्ष का शीर्ष नेतृत्व केन्द्र से लेकर राज्यों तक राजनीतिक गतिविधियों में ईमानदारी से लगा हुआ है। नेताओं की रैलीयों में सारे निर्देशों की खुलकर अवहेलना हो रही है क्योंकि इन रैलीयों में इनकी अनुपालना संभव ही नही है। पंचायत से लेकर विधानसभा तक चुनाव हो रहे हंै और उनमें चुनाव प्रचार भी हो रहा है। अब प्रदेश विधानसभा का शीतकालीन सत्र होने जा रहा है। इसके बाद सरकार के तीन वर्ष पूरे होने का जश्न मनाया जायेगा। इन गतिविधियों में कोरोना कहीं आड़े नही आ रहा है। इस तरह का आचरण जब आदमी के सामने आ रहा है तब उसके मन में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि कोरोना के भय का शिकार उसे ही क्यों बनाया जा रहा है।