शिमला/शैल। नगर निगम शिमला के पास एनजीटी का आदेश आने से पहले करीब एक हजार लोगों के भवन निर्माण के नक्शे पास करने के आवेदन लंबित थे। अब इनमें से कुछ लोगों के नक्शे पास करके उन्हे निर्माण की अनुमति दी जा रही है। यह सभी निर्माण तीन से अधिक मंजिलों के हैं। इसमें तर्क यह दिया जा रहा है कि यह नक्शे एनजीटी का आदेश आने से बहुत पहले ही पास कर दिये गये थे लेकिन नगर निगम इसकी सूचना नही भेज पाया था। नगर निगम का यह तर्क निगम ही नही पूरी सरकार की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े करता है। क्योंकि एनजीटी ने अढ़ाई मंजिल से अधिक के निर्माणों पर रोक लगा रखी है। एनजीटी का यह आदेश उन निर्माणों पर भी लागू है जो उस समय चल रहे थे और पूरे नही हुए थे। एनजीटी ने यहां पर अढ़ाई मंजिल से अधिक के निर्माणों पर इसलिये रोक लगायी क्योंकि यह क्षेत्र गंभीर भूकंप जोन में आते हैं। सरकार के अपने ही अध्ययनो में यह आ चुका है कि भूकम्प के हादसे में सैंकड़ो भवनों का नुकसान होगा और हजारों लोगों की जान जायेगी। प्रदेश उच्च न्यायालय भी इस संबंध में सरकार और निगम प्रशासन के खिलाफ सख्त टिप्पणीयां कर चुका है। एनजीटी के आदेशों के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर करने के कई बार आश्वासन दिये जा चुके हैं लेकिन अभी तक ऐसा हो नही पाया है और जब तक एनजीटी का फैसला रद्द नही हो जाता है तब तक तो यही फैसला लागू रहेगा।
लेकिन शिमला शहरी चुनाव क्षेत्र की राजनीति में यह नक्शे ही सबसे बड़ा जनहित का मुद्दा होता है। इसी जनहित के नाम पर नौ बार अवैध निर्माणों को नियमित करने के लिये रिटैन्शन पालिसियां लायी जा चुकी हैं। ऐसे में इस बार यदि अदालत के आदेशों को नज़रअन्दाज करने के लिये इन नक्शों के एनजीटी के आदेशों से पहले ही पास होने का तर्क लिया जाता है तो इसमें कोई आश्चर्य नही होना चाहिये। क्योंकि नगर निगम में अराजकता का आलम यह है कि यहां पर अदालत के फैसलों पर अमल करने या उसमें अपील में जाने की बजाये प्रशासन ऐसे फैसलों को मेयर के सामने पेश करके उस पर हाऊस की कमेटी बनाकर राय ली जाती है। ऐसा उन लोगो के मामलों में होता है जिन्हें सरकार परेशान करना चाहती है। विकास के मामलों को भी जिनमें किसी पार्षद का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष हित जुड़ा होता है उन्हे वर्षों तक अदालत में लटकाये रखा जाता है ऐसा एक अम्बो देवी बनाम नगर निगम मामलें मे देखने को मिला है। इसमें निगम के नाले की चैनेलाइजेशन होनी है।
अभी बेमलोई बिल्डर्ज़ प्रकरण में इसी तरह का आचरण देखने को मिला है। स्मरणीय है कि एक समय इस प्रौजैक्ट ने प्रदेश की सियासत को हिला कर रख दिया था। प्रदेश विधानसभा में यह मामला गर्माया था। इसी मामलें में तत्कालीन मेयर और आयुक्त नगर निगम एक दूसरे से टकराव में आ गये थे। इसी टकराव के बाद यह मामला CWP 8945/2011 के माध्यम से प्रदेश उच्च न्यायालय में पहुंच गया था। उच्च न्यायालय में यह मामला अब तक लम्बित है उच्च न्यायालय ने बेमलोई बिल्डर्ज़ के निर्माण को बिजली-पानी का कनैक्शन देने पर रोक लगा रखी है और यह रोक अब तक जारी है जब तक किसी निर्माण को बिजली -पानी नही मिल जाता है उसे तब तक कम्पलीशन का प्रमाण पत्रा जारी नही किया जा सकता यह स्थापित नियम है। लेकिन इस नियम को नजऱअन्दाज करके इस वर्ष फरवरी में इन्हे यह पूर्णता का प्रमाण पत्र जारी कर दिया गया। यह प्रमाण पत्र जारी होने के बाद डीएलएफ ने अपने ग्राहकों को इसकी सूचना देकर अगली कारवाई भी शुरू कर दी। लेकिन सरकार और नगर निगम का यह मामला याचिकाकर्ता के संज्ञान में आया तब उसने अपने वकील संजीव भूषण के माध्यम से इस पर नोटिस भिजवा दिया। वकील का नोटिस मिलने के बाद पूर्णता के प्रमाण पत्र को वापिस ले लिया गया है। ऐसे में यह सवाल खड़ा होता है कि अदालत के आदेशों को क्यों नज़रअन्दाज किया गया। वकील के नोटिस में साफ कहा गया है कि इस नोटिस का खर्च 21000 रूपये भी निगम से वसूला जायेगा। क्या इस तरह की कार्यप्रणाली को अराजकता की संज्ञा नही दी जानी चाहिये? क्या इसके लिये शीर्ष प्रशासन को भी बराबर का जिम्मेदार नही ठहराया जाना चाहिये।