क्या प्रदेश कांग्रेस की नयी ईकाई खेमेबाजी से मुक्त होगी?

Created on Tuesday, 26 November 2019 06:30
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। प्रदेश में कांग्रेस की पूरी राज्य ईकाई भंग कर दी गयी है। यह ईकाई भंग किये जाने की सूचना में कहा गया है कि ऐसा प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप राठौर की अनुशंसा पर किया गया है। लेकिन संगठन के भीतर ही कुछ लोगों का यह मानना है कि आने वाले दिनो में अध्यक्ष को भी बदल दिया जायेगा। कुलदीप राठौर बदल दिये जाते हैं या नही यह तो आने वाले दिनो में ही पता चलेगा। लेकिन यह सवाल तो चर्चा में आ ही गया है कि आखिर ईकाई भंग करने की आवश्यकता क्यों पड़ गयी। कुलदीप से पहले सुक्खु अध्यक्ष थे और उनका कार्यकाल काफी लम्बा भी हो गया था इसलिये उनका हटना तो तय ही था। यह माना जा रहा था कि संगठन के जो चुनाव लंबित कर दिये गये थे अब लोकसभा चुनावों के बाद वह पूरे होने थे और उसमें नया अध्यक्ष आना था। लेकिन इस प्रक्रिया के पूरा होने से पहले ही सुक्खु को हटा दिया गया जबकि लोकसभा चुनाव सिर पर थे। राजनीतिक पंडितो का मानना है कि उस समय सुक्खु को हटाना कोई सही राजनीतिक फैसला नही था।
 सुक्खु के समय वीरभद्र सिंह मुख्यमन्त्री थे दिसम्बर 2012 में वीरभद्र ने सत्ता संभाली थी। उस समय मुख्यमंत्री के चयन पर कांग्रेस विधायक दल आधा आधा दो हिस्सों में बंट गया था और इसका असर यह हुआ था कि मन्त्रीमण्डल के गठन के साथ ही दूसरे नेताओं की ताजपोषीयों का दौर भी शुरू हो गया। इन ताजपोशीयों में पार्टी के ‘‘एक व्यक्ति एक पद’’ के सिद्धान्त पर वीरभद्र का संगठन के साथ टकराव हो गया था। इस टकराव के कारण हाईकमान ने और ताजपोषीयां करने पर रोक लगा दी थी। वीरभद्र के संगठन के साथ टकराव का एक परिणाम यह हुआ कि वीरभद्र ने संगठन में विभिन्न स्तरों पर की गयी नियुक्तियों को आधारहीन लोगों का जमावड़ा करार दे दिया। इसी टकराव का परिणाम था कि वीरभद्र ने पैंतालीस विधानसभा क्षेत्रों में ऐसे लोगों को ताजपोषीयां दे दी जिनका विधायक या विधायक का अधिकारिक रूप से चुनाव लड़ा था। इस तरह पैंतालीस चुनाव क्षेत्रों में समानान्तर सत्ता केन्द्र स्थापित हो गये। यही सत्ता केन्द्र चुनावों में पार्टी पर भारी पड़े। इन्ही सत्ता केन्द्रों ने वीरभद्र ब्रिगेड खड़ा किया और जब ब्रिगेड के अध्यक्ष ने पार्टी अध्यक्ष सुक्खु के खिलाफ कुल्लु की अदालत में मानहानि का मामला तक दायर कर दिया। ब्रिगेड में शामिल कुछ प्रमुख लोगों को नोटिस जारी हुए तब यह ब्रिगेड भंग कर दिया गया तब अन्त में इस सबका परिणाम यह हुआ कि वीरभद्र सिंह ने सुक्खु को पार्टी के अध्यक्ष पद से हटवाने को एक तरह से अपना ऐजैण्डा ही बना लिया। जब विधानसभा के चुनाव हुए और पार्टीे सत्ता से बाहर हो गयी तब फिर अध्यक्ष पर इसकी जिम्मेदारी डालने का प्रयास किया गया। इस पर जब सुक्खु ने यह जवाब दिया कि चुनाव टिकटों  का अधिकांश आवंटन वीरभद्र की सिफारिश पर हुआ है तब वीरभद्र- सुक्खु विवाद थोड़े समय के लिये शांत हुआ। लेकिन अन्दर खाते सुक्खु को हटवाने की यह मुहिम जारी रही। जब सुक्खु को हटवाने के लिये आनन्द शर्मा, वीरभद्र, आशा कुमारी और मुकेश अग्निहोत्री में  सहमति बन गयी तब इन सबकी लिखित सहमति पर सुक्खु को हटाया गया और कुलदीप राठौर को लाया गया। कुलदीप राठौर के जिम्मेदारी संभालने के बाद पार्टी के पुराने पदाधिकारियों को हटाने और उनके स्थान पर नयी नियुक्तियां करने की बजाये राठौर नै कार्यकारिणी का आकार ही दोगुने से भी अधिक कर दिया। उपाध्यक्षों, महासचिवों और सचिवों की संख्या ही इतनी बढ़ा दी कि एक तरह से इन पदों की गरिमा ही बनी नहीं रह सकी। राठौर ने यह बढ़ौत्तरी अपने तौर पर ही कर दी या जिन नेताओं ने राठौर को अध्यक्ष बनवाया था उनके कहने पर यह सब किया गया इसको लेकर आज तक सार्वजनिक रूप से कुछ भी स्पष्ट नही हो पाया है। पार्टी के पदाधिकारियों की यह बढ़ौत्तरी उस समय की गयी जब लोकसभा के चुनाव सिर पर आ गये थे। राठौर जब इस जम्बो कार्यकारिणी को संभालने में लगे थे तभी लोस चुनावों के संभावित उम्मीदवारों को लेकर वीरभद्र जैसे वरिष्ठ नेता ही हर तरह के हल्के ब्यान दागने लग गये थे। इस सबके बावजूद भी जब भाजपा के पूर्व सांसद सुरेश चन्देल कांग्रेस में शामिल हुए और पंडित सुखराम ने भी घर वापसी कर ली तब प्रदेश कांग्रेस का सारा नेतृत्व एक ध्वनि से इसका लाभ नही उठा सका। बल्कि आज तक इन नेताओं को उस स्तर का मान सम्मान नही मिल पाया है जिसके यह हकदार थे। जबकि वीरभद्र के खिलाफ चल रही ईडी और सीबीआई के मामलों पर भाजपा ने चुटकीयां लेना लगातार जारी रखा। कांग्रेस एक बार भी भाजपा पर आक्रामक नही हो पायी है। इसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस लोकसभा की चारों सीटें भारी अन्तराल से फिर हार गयी। यही नही लोकसभा चुनावो के बाद हुए दोनो विधानसभा उपचुनाव भी कांग्रेस हार गयी। जबकि पच्छाद के लिये तो राठौर ने हाईकमान को लिखित में आश्वस्त किया था कि यह सीट तो हर हालत में कांग्रेस जीत रही है। शायद राठौर के इसी लिखित आश्वासन को सुक्खु जैसे नेताओं ने अनुभवहीनता  करार दिया है स्वभाविक है कि जब प्रदेश अध्यक्ष का एक उपचुनाव का आकलन ही फेल हो जाये तो राजनीति में यह एक बड़ी बात होती है क्योंकि लिखित में ऐसे आश्वासन कम ही दिये जाते हैं। अभी जयराम सरकार को दो वर्ष होने जा रहे हैं। ऐसे में यदि कांग्रेस को भाजपा से सत्ता छीननी है तो उसे अभी से आक्रामकता में आना होगा लेकिन इसके लिये आज नयी टीम चुनते हुए यह ध्यान रखना होगा कि ऐसे लोग पदाधिकारी न बन जायें जिनके अपने ही खिलाफ मामले निकल आयें। आज राठौर के पक्ष में सबसे बड़ा यही है कि उनका अपना दामन पूरी तरह साफ है। ऐसे में प्रदेश की ईकाई का नये सिरे से गठन कब तक हो जाता है और उसमें वीरभद्र - सुक्खु खेमों से ऊपर उठने का कितना प्रयास किया जाता है और कितने नये लोगों को संगठन में जोड़ा जाता है इस  पर सबकी निगाहें लगी हुई हैं।