शिमला/शैल। धर्मशाला से विजय इन्द्र करण और पच्छाद से गंगूराम मुसाफिर को कांग्रेस ने इन उपचुनावों के लिये अपना प्रत्याशी घोषित किया है। गंगूराम मुसाफिर का प्रत्याशी होना शुरू से ही तय माना जा रहा था। मुसाफिर पूर्व मंत्री है और पार्टी का एक बड़ा नाम भी हैं। इस समय कांग्रेस जिस दौर से गुजर रही है उसमें इसी तरह के वरिष्ठ नेताओं को आगे लाने की आवश्यकता भी मानी जा रही है और उस गणित से मुसाफिर को उम्मीदवार बनाया जाना एकदम सही फैसला माना जा रहा है। क्योंकि यदि संकट के समय ऐसे वरिष्ठ लोगों के स्थान पर एकदम नये चेहरों को मैदान में उतार दिया जाये तो उससे मनोवैज्ञानिक तौर पर अनचाहे ही यह संदेश चला जाता है कि वरिष्ठ नेतृत्व डर के कारण मुकाबला करने का साहस नहीं जुटा पा रहा है। इसलिये पच्छाद से मुसाफिर
के उम्मीदवार होने से पार्टी डर के आरोप से तो मुक्त हो गयी है।
लेकिन इसी गणित में धर्मशाला में पार्टी असफल भी हो गयी है। क्योंकि वहां पर अन्तिम क्षणों में पूर्व मन्त्री सुधीर शर्मा के चुनाव न लड़ने के फैसले से एकदम नये चेहरे विजय इन्द्र करण को मैदान में उतारना पड़ा है जबकि अन्त तक जनता यह मानकर चल रही थी कि सुधीर ही वहां से उम्मीदवार होंगे। पिछले विधानसभा चुनाव में सुधीर तीन हजार के करीब अन्तर से चुनाव हारे थे। अब जिस तरह से जयराम सरकार का अब तक कार्यकाल रहा है उसमें यह माना जा रहा था कि उपचुनाव में सुधीर पिछली हार का बदला ले सकते हैं। लेकिन ऐसा नहीं हो पाया है। सुधीर अभी युवा हैं और उनके इस उपचुनाव से भागने का उनके राजनीतिक भविष्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा यह तय है। इसलिये यह विश्लेषण करना आवश्यक हो जाता है कि आखिर अन्तिम क्षणों मे ऐसा क्या घटा जिससे सुधीर को उपचुनाव से भागना पड़ा। क्योंकि किश्न कूपर के सांसद बनने के साथ ही स्पष्ट हो गया था कि छः माह के भीतर यहां उपचुनाव होगा ही। फिर सुधीर ही धर्मशाला से पिछले चुनाव में प्रत्याशी थे तो उपचुनाव में भी उन्हीं का प्रत्याशी होना स्वभाविक माना जा रहा था और इस दौरान एक बार भी सुधीर ने यह नहीं कहा था कि वह चुनाव नहीं लड़ना चाहते हैं।
इस परिदृश्य में जहां कांग्रेस को इन उपचुनावों में अपनी राजनीतिक परिपक्वता को पुनः स्थापित करने की चुनौती है वहीं पर उसे इस पर भी गंभीरता से चिन्ता और चिन्तन करना होगा कि सुधीर जैसा और कुछ न घटे क्योंकि कूपर के सांसद बनने से यह स्पष्ट था कि उपचुनाव में वही पार्टी के उम्मीदवार होंगे तो उसी के साथ इस गणित को बिगाड़ने का खेल रचा जाना शुरू हो गया था और इस खेल की पहली झलक विधानसभा के मानसून सत्र के दौरान देखने को मिली। इसी दौरान मीडिया के एक वर्ग में यह खबर छप गयी कि सुधीर धर्मशाला से भाजपा के उपचुनाव में प्रत्याशी हो सकते हैं। सुधीर ने इन समाचारों का पुरजोर खण्डन किया। स्पष्ट कहा कि वह कांग्रेसी हैं और कांग्रेस में ही रहेंगे तथा धर्मशाला से चुनाव लड़ने के लिये पूरी तरह तैयार हैं। इसके बाद उनके नाम से ही यह समाचार आ गया कि वह प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप राठौर की कार्य प्रणाली से खुश नही हैं और उनका त्यागपत्र मांगा है तथा इस आश्य का एक पत्र राष्ट्रीय अध्यक्षा सोनिया गांधी को लिखा है। लेकिन बाद में पड़ताल करने पर यह समाचार भी निराधार पाया गया। लेकिन इसका खण्डन उसी प्रमुखता के साथ समाने नहीं आया। अब सुधीर भाजपा के प्रत्याशी नही हुए हैं लेकिन प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतपाल सत्ती ने अब भी एक साक्षात्कार में यह संकेत दिया है कि सुधीर को लेकर इस तरह का विचार अवश्य चल रहा था। सत्ती का यह साक्षात्कार कांग्रेस में एक भ्रम पैदा करने के लिये काफी है। इससे भाजपा और मीडिया के एक वर्ग की रणनीति को समझने का पर्याप्त आधार उपलब्ध हो जाता है।
प्रदेश कांग्रेस के भविष्य की दशा दिशा तय करने में इन उपचुनावों के परिणामों की महत्वूपर्ण भूमिका होगी यह तय है। राष्ट्रीय स्तर पर भ्रष्टाचार के नाम पर केन्द्रिय ऐजैन्सीयों सीबीआई और ईडी की सक्रियता के निशाने पर कांग्रेस सहित विपक्ष के बड़े नेता चल रहे हैं यह अब तक स्पष्ट हो चुका है। इन ऐजैन्सीयों के राडार पर आये कई नेता तो भाजपा में शरण लेकर भयमुक्त भी हो चुके हैं। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि सरकार की हर राज्य में ऐसी कमजोर कड़ीयों पर नजर है और इन्हें परोक्ष/अपरोक्ष मे तोड़कर भाजपा में शामिल करवाने की रणनीति भी है। हिमाचल भी इस संद्धर्भ में कोई अपवाद नही है। यहां पर भी कांग्रेस के कई नेता इन ऐजैन्सीयों के राडार पर हैं यह भी स्पष्ट है। ऐसे नेता अब इन ऐजैन्सीयों के दवाब के कारण अपना राजनीतिक आचरण बदल लें यह कहना कठिन हैं इस परिदृश्य में यह राजनीतिक वस्तुस्थिति प्रदेश के नेतृत्व के लिये एक बड़ी चुनौती होगी यह तय है। क्योंकि प्रदेश अध्यक्ष के लिये लोकसभा चुनावों के बाद यह उपचुनाव अपने को स्थापित करने का दूसरा अवसर होंगे। लोकसभा चुनावों में राठौर को प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभाले हुए बड़ा समय नहीं हुआ था। उस समय कई बड़े नेताओं के विरोधाभासी ब्यानों से पार्टी को नुकसान पहुंचा था लेकिन राठौर अब नये होने का कवर नही ले पायेंगे। इस समय संगठन में सारे पदाधिकारीयों के चयन में उनकी सहमति को अधिमान दिया गया है। इसलिये इन चुनावों के परिणामों का सीधा असर उन पर पड़ेगा। राठौर ईडी और सीबाआई के राडार पर नही हैं ऐसे में सरकार के खिलाफ आक्रामकता की पूरी कमान उन्हे सीधे संभालनी होगी। आज केन्द्र से लेकर राज्य तक सरकार असफलताओं से भरी पड़ी है और इन असफलताओं को जनता के बीच ले जाना कांग्रेस की जिम्मेदारी है। इस परिप्रेक्ष में यह उपचुनाव पार्टी के साथ ही राठौर के लिये भी एक बड़ी परीक्षा और चुनौती होंगे यह तय है। पार्टी के उम्मीदवारो ने दोनो स्थानों से नामांकन भर दिये है। पच्छाद में राठौर और धर्मशाला में मुकेश रहे उपस्थित।