1134 करोड़ की विश्व बैंक पोषित बागवानी परियोजना पर उठते सवाल

Created on Monday, 10 June 2019 14:42
Written by Shail Samachar

 

शिमला/शैल। 2011 की जनगणना के मुताबिक प्रदेश की 89.96% जनसंख्या गांवों में रहती है और कृषि तथा बागवानी पर निर्भर करती है। राज्य के कुल कामगारों में से 62% इसी कृषि क्षेत्र में से आते हैं। प्रदेश में सीमान्त, लघु, मध्यम और बड़े कुल 9.61 लाख किसान 9.55 लाख हैक्टेयर भूमि पर कृषि-बागवानी कर रहे हैं। इन किसानों/बागवानों की स्थिति को सुधारने के लिये विश्व बैंक द्वारा पोषित 1134 करोड़ की बागवानी योजना 21 जून 2016 को शुरू की गयी और 30-6-2023 को इसके पूरा होने का लक्ष्य रखा गया है। इस योजना का उद्देश्य to enhance availability and adoption of Elite  Planting Material and horticulture Technology and support the moderanization of  Horticulture Society through the application of new technology and approaches  that  will contribute to climate resiliency strengthen the productive capacity of produce and their organization and faciliate access to market value addition.
The imported plant material Root stock and feathered plants were to be use for establishment of   nursery mother plants for subsequent multiplication for early planting of the best root stocks and varieties for subsequent multiplication.

इस उद्देश्य को पूरा करने के लिये इसमें प्रशासनिक तन्त्र की रूप रेखा इस तरह से रखी गयी थी। इसमें शीर्ष पर संचालन परिषद, कार्यकारी परिषद, परियोजना समन्वय ईकाई, चार परियोजना अनुपालना यूनिट, जिला समन्वय कमेटी और ब्लाॅक अनुपालना ईकाई। इस सारे तन्त्र की जिम्मेदारी इसे अन्तिम लाभार्थी  किसान /बागवान तक पहुंचाना था। इसमें बागवानी विभाग, वन  और बागवानी विश्वविद्यालय सोलन हिमाचल प्रदेश नर्सरीज़ प्रबन्धन सोसायटी, एचपीएमसी, कृषि विपणन बोर्ड की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की गयी थी और बागवानी विभाग इसमें नोडल ऐजैन्सी की भूमिका निभा रहा था। परियोजना संचालन निर्देशों के अनुसार इसमें एक पूर्णकालिक निदेशक की व्यवस्था रखी गयी है।
 इस तरह परियोजना का पूरा स्वरूप  देखने से स्पष्ट हो जाता है कि यह परियोजना प्रदेश के किसानो/ बागवानों के लिये कितनी महत्वपूर्ण हो सकती है। लेकिन जिस ढंग से इसमें पहले तीन वर्षों में काम किया गया है उससे यह गंभीर आशंकाएं उठ रही हैं कि क्या यह समय पर पूरी हो पायेंगी? क्या इसमें धन का दुरूपयोग हो रहा है? इन आशंकाओं का आधार यह है कि इसमें वर्ष 2014-15 में 50 लाख दिये जिनमें से केवल 2.53 लाख खर्च हुए, 2015-16 में 20 करोड़ मिले और खर्च 6.19 हुए, 2016-17 में इसमें 42.46 करोड़ आये और खर्च 3.33 करोड़ हुए, 2017-18 में 13.73 करोड़ खर्च हुए जबकि एक्शन प्लान 150 करोड़ का था। इस तरह इन तीन वर्षों में 62.96 करोड़ मिले और खर्च हुए 23.27 करोड़ जबकि एक्शन प्लान 224 करोड़ का था। इससे यह सवाल उठना स्वभाविक है कि क्या जून 2023 तक 1134 करोड़ सही तरीके से खर्च हो पायेंगे या नहीं?
परियोजना का उद्देश्य किसानों बागवानों को उन्नत किस्म के रोग मुक्त विदेशी पौधे उपलब्ध करवाना था। इसके लिये वित्त वर्ष 2016-17 में आर्डर दिया गया और सप्लाई वित्त वर्ष 2017-18 में आयी। 4.80 करोड़ की इस खरीद के लिये Floating Limited Internal Bid प्रक्रिया अपनाई गयी। 4-12-2017 को निविदायें मांगी गयी जिनका सामूहिक आकलन 17-1-18 को किया गया और जिसकी विश्व बैंक से सहमति 4-2-2018 को मिली और एलओसी 16-2-2018 को जारी कर दिया गया। इन निविदाओं में तीन कंपनीयां M/s Pepinieres Coulie of France,   M/s Griba International of Italy, M/s Vita Fruit of Italy ने भाग लिया। इसमें जब निविदाओं के लिये विज्ञापन किया गया और निविदाकर्ताओं की जानकारी हासिल की गयी तब उसमें Vitafruit का यह सामने आया कि उसने M/S Indio Dutch Horticulture Private Ltd. के नाम से एक कंपनी उत्तराखण्ड में 2004 में दो लाख की कुल पूंजी से पंजीकृत करवा रखी थी और यही कंपनी अब विदेशी पौधे सप्लाई करने मे वीटा की सहयोगी कंपनी थी। लेकिन रजिस्ट्रार कंपनी के कार्यालय के मुताबिक यह कंपनी 2012 में ही बन्द हो चुकी थी। इस कंपनी के साथ एक सुशान्त चड्डा के घनिष्ठ संबंध थे क्योंकि इन्ही के परिवार के सुधीर चड्डा कंपनी के मुख्य निदेशक थे। जबकि दूसरे निदेशक अमित पराशर ने 2-9-2013 को कंपनी से त्यागपत्र दे दिया था। इसी के साथ यह जानकारी भी सामने आयी कि सुशान्त चड्डा ही वीटा फ्रूट का इण्डिया में अधिकृत प्रतिनिधि है। लेकिन निविदा दस्तावेजों में कंपनी ने किसी और को ही प्रतिनिधि दिखा रखा है। निविदा नियमों के मुताबिक कंपनी को तीन वर्ष की वित्तिय स्थिति दिखानी है जबकि वीटा ने केवल एक वर्ष की ही दिखाई है। वीटा फ्रूट ने रेट भी स्याही पैन से भरे हैं जबकि यह टाईप होने चाहिये थे। इसी तरह ग्रीवा कंपनी से 30,32,732 रूपये के विदेशी पौधे खरीदे। लेकिन इस खरीद पर यह प्रश्नचिन्ह है कि इसमें मूल invoice की प्रति ही रिकार्ड में नही है केवल ईमेल से प्राप्त कापी लगाई गयी है। इसमें एक रोचक तथ्य यह भी सामने आया है कि जिन तीनों विदेशी कंपनीयों से पौधों की खरीद हुई है वह तीनों यूरोप के इटली, फ्रांस और नीदरलैण्ड से हैं तथा जो कन्सलटैन्ट नियुक्त किये गये वह भी इन्ही देशों से हैं। इस सबमें बड़ा सवाल यह खड़ा हो गया है कि विदेशों से आये इन पौधों की गुणवता कैसे सुनिश्चित की गयी? क्योंकि इनकी जीवितता का जो खुलासा सामने आया है उसके मुताबिक केवल 51% पौधे ही औसतन जीवित रह पाये हैं। जबकि अबतक जो अध्ययन हुए हैं उनके मुताबिक हिमाचल के लिये यूरोप की  बजाये अमेरीका के पौधे ज्यादा उपयोगी माने गये हैं। लेकिन पूरी परियोजना अवधि के लिये ही यूरोप की इन तीनों कंपनीयों से अनुबन्ध कर लिया गया है और तीनों कंपनीयों में सुशान्त चड्डा का एक बराबर दखल सामने आया है। शायद इसी दखल को सामने रखते हुए आडिट रिपोर्ट में यह कहा गया है However whenever the response from the bidders are limited the buyer should opt for open interational Bidding process of contacting / spreading the requirement among eligible parties /suppliers spread all over world) it is worth mentioning over here that we did not find much about these suppliers selected by project, when searched on google. the authorized representative of these companies/suppliers Mr.  Sushant Chadda, is stated already supplying imported plant material in Himachal and neighboring states. The project should have made inquires about the credentials of Mr. Sushant Chadda from these states before accepting him as representative. Also the project may heve put a ridder for not supplying the material to grower /orchardist /sellers in the state. इस परिदृश्य में पूरी योजना की अन्तिम सफलता पर प्रश्नचिन्ह लगने स्वभाविक हैं क्योंकि आडिट रिपोर्ट के बाद भी सरकार इसमें कोई जांच करवाने का साहस नही कर पा रही है।


यह है विदेशी पौधों की जीवितता का रिकार्ड