न्यायिक सेवाओं से जुड़े लोगों को ट्रिब्यूनल में नियुक्त किया जाये

Created on Tuesday, 30 April 2019 07:39
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। प्रदेश के प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में प्रशासनिक सदस्यों के दो पद लम्बे समय से खाली चले आ रहे हैं। इन पदों को भरने के लिये कई बार आवेदन आमन्त्रित किये गये हैं। अब इन पदों को भरने की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है। इसके लिये चयन समिति की बैठक हो चुकी है। लेकिन इस बैठक में किन सदस्यों की नियुक्ति की अनुशंसा की गयी है इसका कोई अधिकारिक फैसला सामने नहीं आया है। लेकिन माना जा रहा है कि शीघ्र ही यह फैसला सामने आ जायेगा। लेकिन यह फैसला अधिकारिक तौर पर सामने आने और यह नियुक्तियां होने से पहले ही यह चर्चा चल पड़ी है कि इस ट्रिब्यूनल को बन्द किया जा रहा है। इस संद्धर्भ में कर्मचारी नेता विनोद कुमार ने अपनी प्रतिक्रिया जाहिर की है।
प्रशासनिक ट्रिब्यूनल के अस्तित्व पर उठे सवालों पर हि.प्र. अराजपत्रित कर्मचारी महांसघ ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है कि प्रदेश के अग्रिण कर्मचारी संगठन प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में चहेते नौकरशाहों की नियुक्तियों का हमेशा विरोध करते रहे हैं परन्तु सरकार कर्मचारीयों की भावनाओं को दरकिनार कर ऐसे नौकरशाहों को ट्रिब्यूनल का बतौर सदस्य नामांकित करती रही है जिनकी सरकारी उच्च पदों पर नकारात्मक कार्यशैली के कारण अधीनस्थ कर्मचारियों को अपने इन्साफ के लिए वर्षो कोर्ट-कचहरियों में भटकना पड़ता है। महासंघ के संयोजक एवं परिसंघ के पूर्व अध्यक्ष विनोद कुमार ने कहा है कि सरकारें ऐसे चहेते नौकरशाहों को प्रशासनिक ट्रिब्यूनल का सदस्य नामांकित करती रही है, जिनकी सोच अपनी सेवाकाल के दौरान प्रजातांत्रिक न होकर सामंतवादी रही है और जो सेवा मामलों पर नियम/कानून सम्मत न्याय देने के मामले पर एक पृष्ठ का विवरण लिखने में भी सक्षम नहीं होते हैं। महासंघ ने कहा है कि प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में किसी भी सदस्य की नियुक्ति उसके सर्विस रिकाॅर्ड की समीक्षा किए बिना और कोई मैरिट निर्धारित न करना पूरी तरह से कर्मचारी वर्ग से अन्याय है, जो संवैधानिक संस्था की विश्वसनीयता को ही चोट करते हैं।
महासंघ नेता विनोद कुमार ने कहा है कि 1986 में स्थापित प्रशासनिक ट्रिब्यूनल को वर्ष 2008 में धूमल सरकार ने कर्मचारी संगठनों की मांग पर इसे बन्द करके कर्मचारियों के मसलों की पैरवी के लिए उच्च न्यायालय में व्यवस्था दी, चूंकि उस समय तक 24 वर्षों के इतिहास में सरकार द्वारा प्रताड़ित कर्मचारियों/कर्मचारी नेताओं के अनुभव जिस उद्देश्य से ट्रिब्यूनल की स्थापना की गई थी, उसके विपरीत थे। इसलिए धूमल सरकार का यह फैसला पूरी तरह से कर्मचारियों के हक में गया था। परन्तु सत्ता परिवर्तन के बाद 2013 में राजनीतिक दृष्टिकोण से वीरभद्र सरकार ने अगस्त 2013 की कैबिनट की बैठक में ट्रिब्यूनल को दुबारा से चालू करने का फैसला लिया, सम्भवतः उसके पीछे बेरहम राजनीतिक तबादलों पर उच्च न्यायालय की सरकार को फटकार थी। लेकिन सरकार के इस फैसलें के विरूद्ध उस समय कर्मचारी परिसंघ ने सितम्बर 2013 के सरकार के इस फैसले का विरोध करते हुए प्रदेश सरकार उच्च न्यायालय और भारत सरकार को लिखित तौर पर ज्ञापन के माध्यम से कर्मचारियों की भावनाओं से अवगत करवाया गया। जिसके चलते फरवरी 2015 तक मामला लटका रहा, परन्तु राजनीतिक कारणों से वीरभद्र सरकार ने आखिर इसे दोबारा खोलते हुए पूर्व की तर्ज पर अपने चहेते नौकरशाहों को वहां बतौर सदस्य लगाया। विनोद कुमार ने कहा है कि वर्तमान में भी सरकार से यह कई बार मांग की जा चुकी है कि प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में किसी भी चहेते नौकरशाहों को एड़जस्ट करने की परीपाटी को विराम लगाते हुए ट्रिब्यूनल में न्यायिक सेवाओं से जूड़े जजों/सदस्यों की ही नियुक्तियां की जायें जिसमें सीधे सरकार का हस्तक्षेप न हो ताकि नकारात्मक कार्यशैली वाली नौकरशाही और भ्रष्ट राजनेताओं की प्रताड़ना के शिकार कर्मचारी/अधिकारी वर्ग को समय रहते उचित न्याय मिल सके, चूंकि प्रशासनिक ट्रिब्यूनल एक्ट 1985 में भी देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के ऐसे कई फैसलों के सन्दर्भ अंकित है जिसमें ट्रिब्यूनल की ऐसी कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिन्ह खड़े किए हैं।