सुक्खु-वीरभद्र के चलते पार्टी की लोस तैयारीयां प्रभावित होने की आशंका, राठौर के लिये होगा यह सब परीक्षा की घड़ी

Created on Monday, 21 January 2019 08:36
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर कुलदीप राठौर की ताजपोशी के बाद सुक्खु वीरभद्र द्वन्द एक अलग ही अन्दाज में आ गया है क्योंकि इस ताजपोशी के बाद जहां वीरभद्र ने सुक्खु के खिलाफ अपनी भड़ास निकालते हुए भाषायी शालीनता की सारी हदें लांघ दी वहीं पर सुक्खु ने भी वीरभद्र पर हर चुनाव से पहले संगठन को ब्लैकमैल करने का ऐसा तीर छोड़ा है जिससे पूर्व मुख्यमन्त्री का सारा सियासी कुनबा इस कदर लहू लुहान हुआ है कि इसके जख्म देर तक रिसते रहेंगे। इस द्वन्द में पूरी पार्टी सुक्खु-वीरभद्र खेमों में बंटकर चौराहे पर आ खड़ी है। यह सही है कि वीरभद्र विधानसभा चुनावों से बहुत पहले सुक्खु को हटाने का मोर्चा खोल बैठे थे। इसमें वह वीरभद्र ब्रिगेड तक खड़ा करने पर आ गये थे। इसी का परिणाम था कि इस ब्रिगेड के अध्यक्ष बलदेव ठाकुर ने सुक्खु के खिलाफ मानहानि का मामला तक दायर कर दिया जो अभी तक लंबित है। लेकिन यह सबकुछ कर लेने के बाद भी जब वह सुक्खु को हटवाने में सफल नही हो पाये तो शान्त होकर बैठ भी गये। सुक्खु के साथ पार्टी के अनुशासित सिपाही की तरह मंच भी सांझा करना पड़ा।
लेकिन इसी बीच जब वीरभद्र का अभियान फेल हो गया तब इसका लाभ उठाते हुए आनन्द शर्मा ने अपनी चाल चल दी। यह तय है कि देर सवेर अब सुक्खु को हटना ही था क्योंकि उनका कार्यकाल बहुत अरसा पहले ही खत्म हो चुका था। लोस चुनावों से पहले यह बदलाव होना ही था। इसको जानते हुए आनन्द शर्मा ने सुक्खु के बदलाव पर कुलदीप राठौर का नाम आगे कर दिया। इसके लिये आनन्द ने वीरभद्र, मुकेश अग्निहोत्री और आशा कुमारी जैसे सारे बड़े नेताओं का कुलदीप के लिये समर्थन भी जुटा लिया। इन सबके समर्थन के परिणाम से हाईकमान ने राठौर के नाम पर अपनी मोहर लगा दी। हाईकमान का फैसला जैसे ही सार्वजनिक हुआ तो उसके बाद वीरभद्र सिंह के तेवर फिर बदल गये। सुक्खु पर नये सिरे से हमला बोल दिया। वीरभद्र के हमले का जवाब सुक्खु के समर्थकों ने भी उसी तर्ज में दिया। सुक्खु के समर्थन में भी पार्टी विधायकों/ पूर्व विधायकों /पूर्व अध्यक्षों का एक बड़ा वर्ग खुलकर सामने आ गया है। कई जिलों में पदाधिकारियों ने वीरभद्र की टिप्पणीयों के विरोध में त्यागपत्रा तक दे दिये हैं। वीरभद्र -सुक्खु के इस द्वन्द में पार्टी किस कदर दो हिस्सों में बंट गयी है इसका तमाशा तब सामने आ गया जब राठौर पार्टी कार्यालय पदभार संभालने पहुंचे। इस अवसर पर जब नारेबाजी हुई तो नौबत हाथापाई तक आ गयी और परिणामस्वरूप एक कार्यकर्ता को आईजीएमसी में भर्ती करवाना पड़ा। राठौर के पदभार समारोह में ही जब नौबत यहां तक आ गयी है तो आगे चलकर यह हालात कहां तक पहंुचेगें इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। अभी लोकसभा चुनावों के लिये पार्टी को तैयार होना है और सरकार के खिलाफ आक्रामकता अपनानी है लेकिन जो वातावरण पहले ही दिन सामने आ गया है उसको देखते हुए राठौर के लिये चुनावों में परिणाम दे पाना बहुत आसान नही लग रहा है। क्योंकि वीरभद्र सिंह मण्डी से चुनाव लड़ने को लेकर जिस तरह से तीन-चार बार ब्यान बदल चुके हैं उसके बाद उनकी नीयत और नीति को लेकर कई सवाल उठने शुरू हो गये हैं।
वीरभद्र के इन बदले तेवरों से प्रदेश के प्रशासनिक और राजनीतिक हल्को में कयासों का दौर शुरू होना स्वभाविक है। प्रदेश के राजनीतिक पंडित जानते हैं कि जब 2012 में वीरभद्र मुख्यमन्त्री बने थे तब उनके पक्ष में केवल आधे ही विधायक थे। लेकिन फिर भी उन्हें मुख्यमन्त्री बना दिया गया था। परन्तु उसके बाद जब पार्टी में ‘‘एक व्यक्ति एक पद’’ के केन्द्र के सिद्धान्त पर अमल करने की बात आयी थी तब उन्होंने इसका खुला विरोध किया था। बल्कि काफी समय तक इस कारण से मन्त्रीमण्डल के विस्तार में गतिरोध भी खड़ा हो गया था। इसी गतिरोध का परिणाम था कि आगे चलकर निगमों /बोर्डों में दर्जनों के हिसाब से ताजपोशीयां हो गयी जो विपक्ष के लिये एक बड़ा मुद्दा बन गयी। बल्कि यहां तक हालात पहुंच गये कि सरकार को ‘वृद्धाश्रम’ तक की संज्ञा दी गयी। इस परिप्रेक्ष में यदि वीरभद्र के सारे राजनीतिक कार्यकाल का आंकलन किया जाये तो यह सभी मानेंगे कि उन्होंने हर समय दबाव की राजनीति की है और इस दबाव में वह कई बार असफल भी रहे हैं। उनके ऐसे राजनीतिक रिश्तों का सबसे बड़ा उदाहरण विजय सिंह मनकोटिया रहा है जिसने एक समय पूरा एक सप्ताह वीरभद्र से प्रतिदिन पांच-पांच प्रश्न पूछे थे। वीरभद्र के शासनकाल में अपनों की गलतीयों पर कैसे आंखे बन्द कर ली जाती थी इसका सबसे बड़ा प्रमाण 24 सितम्बर 2018 को उनके भाई राज कुमार राजेन्द्र सिंह के मामले में आये सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के रूप में सामने आ चुका है। इस फैसले पर जयराम सरकार कब, कैसे और कितना अमल करती है इसका पता आने वाले दिनो में लग जायेगा।
इस परिदृश्य में राजनीतिक दलों के संगठन और उनकी सरकारों का आंकलन किया जाये तो यह सामने आता है कि अधिकांश में सरकार बनने के बाद संगठन बहुत हद तक अर्थहीन होकर रह जाते हैं। सरकारें ही संगठन का पर्याय बन जाती है और कांग्रेस के संद्धर्भ में तो यह बहुत स्टीक बैठता है। इसलिये आज जब सुक्खु और वीरभद्र के द्वन्द का आंकलन किया जाये तो वीरभद्र और मुख्यमन्त्री अध्यक्ष पर भारी पड़ते रहे हैं बल्कि यह कहना ज्यादा संगत होगा कि कई बार सरकार के फैसलों की जनता में वकालत करना कठिन ही नही बल्कि असंभव हो जाता है। क्योंकि अधिकांश फैसले संगठन की राय के बिना ही ले लिये जाते हैं और जब जब सरकार और संगठन के बीच तालमेल गड़बड़ा जाता है तब तब निश्चित रूप से सरकारों की हानि होती है। सुक्खु और वीरभद्र के संद्धर्भ में भी यही हुआ है।
लेकिन इस समय राठौर के बनने के साथ ही वीरभद्र सिंह ने जिस तर्ज में हाईकमान को भी अपरोक्ष में कोसा है उससे कई सवाल खड़े हो गये हैं। राठौर विधायक नही हैं इस नाते वह विधायकों/मन्त्रीयों के बराबर नहीं आ पाते हैं। फिर जब संगठन की बागडोर किसी गैर विधायक को ही दी जानी थी तो क्या उसमें संगठन के वर्तमान पदाधिकारियों में से भी कोई नाम गणना में नही आना चाहिये था। इस समय संगठन में उपाध्यक्षों और महामन्त्रियों की एक लम्बी सूची है। कुछ तो ऐसे हैं जिन्हे हाईकमान ने विशेष रूप से नियुक्त किया है लेकिन इस समय वह गणना में नही आये। क्योंकि इस बार एक अकेले वीरभद्र सिंह ही नहीं बल्कि चार अन्य नेताओं का भी बदलाव के लिये दबाव रहा है। इस वस्तुस्थिति में यह पूरी संभावना बनी हुई है कि वीरभद्र -सुक्खु के इन तेवरों का अपरोक्ष में उन पदाधिकारियों के मनोबल पर भी प्रभाव पड़े जिन्हे गणना में नहीं लिया गया है। यह स्थिति नये अध्यक्ष के लिये एक बड़ी चुनौती होने जा रही है। इसमें कोई दो राय नही है।