सुक्खु विरोध को जायज ठहराने के लिये वीरभद्र को चुनावे लड़ने की कसौटी पर उतरना होगा

Created on Tuesday, 26 June 2018 11:33
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। पूर्व मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिह आने वाला लोकसभा चुनाव नही लडेंगे। उनकी पत्नी पूर्व सांसद प्रतिभा सिंह चुनाव लडे़गी या नही इस पर अभी चर्चा नही हुई है। अपने 85वें जन्म दिन पर मीडिया से बात करते हुए वीरभद्र सिंह ने यह स्पष्ट किया है। लेकिन इसी अवसर पर उन्होने प्रदेश पार्टी अध्यक्ष से लेकर केन्द्रिय नेतृत्व पर भी यह कहकर निशाना साधा कि इस समय शिखर से लेकर नीचे तक सभी जगह मनोनयन ही चल रहा है और वह इसका विरोध करते हैं। इस समय संगठन में पदाधिकारी चयन से नही मनोनयन से है। यह फैसला और नीति हाईकान की होती है प्रदेश ईकाई की नही। प्रदेश ईकाई द्वारा मनोनीत पदाधिकारी की योग्यता और उपयोगिता उस पद के लिये कितनी है जिसके लिये उसका मनोनचन किया गया है इसको लेकर मतभेद हो सकते हैं। लेकिन यही बात सरकार पर भी लाग होती है। मुख्यमन्त्री जब अपने मन्त्रीयों का चयन करते हैं तब उनकी योग्यता और उपयोगिता का कोई मानदण्ड नही रहता है। जब विभिन्न निगमों/बोर्डो या अन्य संवैधानिक पदों पर मुख्यमन्त्री नियुक्तियां करते हैं तब भी कोई ठोस मानदण्ड नही रहता है। यही कारण होता है कि पांच वर्ष का पूरा कार्यकाल मन्त्री रहने के बाद भी हार जाते हैं। यह स्थिति सभी राजनीतिक दलों की एक बराबर रहती है। इसमें कोई दो राय नही है।
इस पृष्ठभूमि में यदि आज वीरभद्र के शासनकाल का आकलन किया जाये तो सबसे पहले यही सामने आता है कि जब 2012 में वीरभद्र मुख्यमन्त्री बने थे तब उन्हे पार्टी के सभी 36 विधायकों का समर्थन हासिल नही था। पार्टी आधे-आधे में बंटी हुई थी। उसके बाद पार्टी में एक व्यक्ति एक पद को लेकर घमासान हुआ था वीरभद्र ने इस सिद्धान्त को नही माना था। फिर विभिन्न निगमां/बोर्डां में हुई ताजपोशीयों को लेकर भी जो कुछ हुआ था वह भी सभी को याद है। राजेश धर्माणी जैसे मुख्य संसदीय सचिव सरकार से किस कदर असहमत चलते रहे कि उन्होने सचिवालय में अपने कार्यालय आना छोड़ दिया था। तब के परिवहन मंत्री जीएस बाली ने कितनी बार सरकार से असहमति के कारण अपना पद छोड़ने की घोषनाएं की थी। बेरोजगारों को भत्ता देने के नाम पर स्थिति कहां तक पहुंच गयी थी यह भी सब जानते हैं। कुल मिलाकर सरकार के पूरे कार्यकाल में ऐसा बहुत कुछ घटा है जिसे किसी भी गणित में लोकतान्त्रिक नही कहा जा सकता है। बल्कि इसी सबके कारण सरकार पुनः सत्ता में वापसी नही कर पायी। आज भी यदि प्रदेश के अच्छे राजनेता का नाम वीरभद्र को लेना हो ता उनकी जुबान पर सबसे पहला नाम भाजपा के शान्ता कुमार का आता है। उन्हे अपनी पार्टी में कोई अच्छा आदमी/नेता ही नजर नही आता है। यही स्थिति शान्ता कुमार की भी रहती है। दोनां नेता एक दूसरे की तारीफ करने का कोई अवसर नही जाने देते हैं। ऐसा क्यों किया जाता है इसके कारणों का भी बहुत लोगों को पता है।
इस परिदृश्य में यदि आज वीरभद्र बनाम सुक्खु द्वन्द का निष्पक्षता से आकलन किया जाये तो यह स्पष्ट है कि संगठन में हुए मनोनयनों की आड़ लेकर कुछ और हित साधे जा रहे हैं। क्योंकि अब तक जो कुछ सरकार और संगठन में घटा है वह सब एक दूसरे का ही प्रतिफल है इसे भले ही ऊपर बैठे नेता न समझे लेकिन हर कार्यकर्ता इसे जानता और मानता है। विधानसभा चुनावों में 80% टिकट अपनी पसन्द से बांटकर भी वीरभद्र सत्ता में वापसी नही कर पाये हैं यह हकीकत है। चुनावों से पहले खोले गये संस्थानों में कितनी व्यवहारिकता रही है इसका प्रमाण इसी से मिल जाता है कि एक स्वास्थ्य संस्थान पंजाब में ही अधिसूचित कर दिया गया। इसको लेकर भाजपा हर मौके पर तंज कस रही है। ऐसी वस्तुस्थिति के बाद भी वीरभद्र सुक्खु को हटाने का अभियान छेड़े हुए हैं और प्रदेश का भ्रमण कर रहे हैं। जबकि सुक्खु का हटना तो इस अभियान के बिना भी तय है क्योंकि उनका कार्यकाल तो बहुत अरसा पहले ही पूरा हो चुका है। बल्कि यह वीरभद्र का सुक्खु विरोध ही है जिसके कारण सुक्खु का राजनीतिक कद बढ़ गया है। हाईकमान सुक्खु की सेवाएं राष्ट्रीय स्तर पर कोई जिम्मेदारी देकर लेने जा रहा है। सुक्खु हट रहे हैं यह वीरभद्र भी जानते हैं लेकिन अन्दर खाते सवाल तो यह है कि वीरभद्र अगला अध्यक्ष अपनी पसन्द का चाहते हैं जो उनके बेटे के हितांं की रक्षा कर सके। जो नाम इस समय चर्चा में चल रहे हैं उनमें शिमला संसदीय क्षेत्र से हर्षवर्धन चौहान और रोहित ठाकुर है दोनों की ही समृद्ध राजनीतिक पृष्ठभमि है। लेकिन यह दोनो ही शायद वीरभद्र को पसन्द नही है। मण्डी में कौल सिंह का विरोध तो वह बहुत पहले से करते आ रहे हैं। 2012 के चुनावों के नाम पर कैसे कौल सिंह से अध्यक्षता छिनी थी यह सब जानते हैं। हमीरपुर में कोई राजपूज नेता वीरभद्र की नजर में इस योग्य नही है। कांगड़ा से सुधीर शर्मा, जीएस बाली और आशा कुमारी हैं। आशा कुमारी राजपूत गणित में फिट बैठती हैं। यदि उनके खिलाफ उच्च न्यायालय में लंबित चल रहा आपराधिक मामला आड़े न आया तो वह अगली अध्यक्ष हो सकती हैं ऐसा माना जा रहा है।
लेकिन इस सबके के साथ सबसे महत्वपूर्ण सवाल तो यह बन रहा है कि कांग्रेस के अगले लोकसभा उम्मीदवार कौन होंगे। कांगडा लम्बे असरे से ब्राहमण बहुलक्षेत्र माना जाता है भापजा यहां से पंडित को ही टिकट देती आ रही है और इस गणित में कांग्रेस के पास दो ही नाम हैं पूर्व मन्त्री जीएस बाली या सुधीर शर्मा। लेकिन सूत्रों की माने तो वीरभद्र इनमें से किसी के लिये भी हामी नही भर रहे हैं। हमीरपुर और मण्डी दोनां राजपूत बहुल क्षेत्र माने जाते हैं।
हमीरपुर से अनुराग ठाकुर इस बार चौथी बार लडेंगे। इससे पहले धूमल, सुरेश चन्देल और स्व. मेजर जनरल विक्रम सिंह सभी राजपूत सांसद रहे चुके हैं। हमीरपुर में कांग्रेस के पास सुक्खु, रामलाल और अनिता वर्मा तीन बराबर के राजपूत नाम हैं। लेकिन यहां से वीरभद्र की पसन्द राजेन्द्र राणा और राजेन्द्र की पसन्द उनका बेटा बन रहे हैं। इसी तरह मण्डी में तो वीरभद्र और प्रतिभा की पारम्पारिक सीट मानी जाती है। सुखराम और अनिल शर्मा तो कांग्रेस से बाहर हो चुके हैं। कौल सिंह तो विधानसभा में भी अपनी हार के लिये वीरभद्र के भीतरघात को जिम्मेदार ठहरा चुके हैं। ऐसे में मण्डी की सीट भाजपा से छीनने के लिये कांग्रेस के पास वीरभद्र और प्रतिभा सिह के अतिरिक्त कोई विकल्प नही है। इन दोनों में से जो भी उम्मीदवार होगा उसका संदेश पूरे प्रदेश में जायेगा। यदि वीरभद्र प्रतिभा सिंह दोनों ही चुनाव लड़ने के लिये तैयार नही होते हैं जिसके संकेत यह अब तक दे चुके हैं तो इसका सीधा संदेश जायेगा कि वीरभद्र, जयराम ठाकुर को कमजोर नही करना चाहते हैं। क्योंकि वीरभद्र या प्रतिभा सिंह उम्मीदवार होते है तो जयराम को मण्डी से बाहर प्रचार पर निकलना आसान नही होगा। इस परिदृश्य में यदि वीरभद्र अन्ततः चुनाव लड़ने के लिये तैयार नही होते हैं तो फिर उनकी नीयत को लेकर जो सन्देहात्मक सवाल उठेंगे उनका कोई स्पष्टीकरण उनके पास नही होगा। सूत्रों की माने तो हाईकान से इस आश्य के संकेत भी वीरभद्र तक पहुंच चुके हैं। उमर और राजनीति के इस पड़ाव पर आकर यदि वीरभद्र की नीयत पर ऐसे सवाल खड़े होते हैं तो यह भविष्य के लिये घातक होते हैं। राजनीतिक विश्लेष्कों के मुताबिक सुक्खु के सैंद्धान्तिक विरोध को वीरभद्र तभी जायज ठहरा सकेंगे यदि वह स्वयं या उनकी पत्नी चुनाव लड़ने के लिये तैयार होते हैं। यदि ऐसा नही करते हें तो उनके सुक्खु विरोध को अपरोक्ष में जयराम और भाजपा की मदद का ही प्रयास माना जायेगा।