क्या जनमंच के माध्यम से जनता के सही मूड का आकलन हो पायेगा
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Created on Tuesday, 05 June 2018 05:57
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Written by Shail Samachar
शिमला/शैल। जयराम सरकार ने जनमंच के माध्यम से जनता की समस्याएं सुनने और उनका तत्काल समाधान निकालने का प्रयोग आरम्भ किया है। यह प्रयोग कितना सफल होता है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन राजनीतिक हल्कों में इस प्रयोग को अगले लोकसभा चुनावों के पूर्व आकलन के रूप में देखा जा रहा है क्योंकि अभी हाल ही में देश के कुछ राज्यों में हुए लोकसभा और विधानसभा उपचुनावों के जो परिणाम सामने आये हैं उसने भाजपा के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है। इस परिदृश्य में राजनीतिक विश्लेष्कों का यह मानना है कि लोकसभा के चुनाव मई 2019 के बजाये इसी वर्ष के नवम्बर - दिसम्बर तक करवाये जा सकते हैं। इसके लिये तर्क यह दिया जा रहा है कि मई आते -आते विपक्ष सही मायनों में इकट्ठा हो सकता है और एक जुट हुए विपक्ष को हरा पाना अब भाजपा के लिये संभव नही होगा। दूसरा तर्क यह है कि यदि इस वर्ष होने वाले मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में यदि भाजपा को कोई सफलता नहीं मिल पाती है तो 2019 बहुत कठिन हो जायेगा क्योंकि उत्तरप्रदेश जो कि सबसे बड़ा राज्य है वहां योगी के नेतृत्व में भाजपा कमजोर पड़ती जा रही है। वैसे भी केन्द्र सरकार अबतक न तो कश्मीरी पंडितों को वापिस बसा पायी है न ही गंगा साफ हो पायी है और न ही गो हत्या पर प्रतिबन्ध का कोई कानून आया है। यह मुद्दे भाजपा के एक लम्बे वक्त से चले आ रहे घोषित मुद्दे रहे हैं जिनपर कोई परिणाम अभी तक सामने नही आ पाये हैं।
माना जा रहा है कि भाजपा हाईकमान ने इस सबको सामने रखते हुए अपने प्रदेशों की सरकारों को अपना जन संपर्क बढ़ाने और जन विश्वास पाने के लिये सक्रिय कदम उठाने के निर्देश दे रखे हैं। उन्हीं निर्देशों का परिणाम जनमंच माना जा रहा है। इसके माध्यम से सरकार जनता का कितना विश्वास प्राप्त कर पाती है यह तो आगे ही पता चलेगा। लेकिन इस समय भाजपा का अपना ही संगठन प्रदेश सरकार को लेकर बहुत प्रसन्न नही है। क्योंकि पांच माह के समय में सरकार विभिन्न निगमो/बोर्डो में अपने कार्यकर्ताओं की ताजपोशीयां कर पायी है और न ही यह दो टूक फैसला ले पायी है कि उसे यह ताजपोशीयां नही करनी है। अब तक जो ताजपोशीयां हुई हैं उनको लेकर यह कहा जा रहा है कि जो लोग मुख्यमन्त्री के अपने निकट थे उनको तो ताजपोशीयां दे दी गयी है। बल्कि कुछ नौकरशाहों के परिजनो को भी इनसे नवाजा गया है जिनका संगठन के लिये कोई सक्रिय योगदान नही रहा है। यहां तक कि जो शिकायत निवारण कमेटीयां सारे जिलों और प्रदेश स्तर पर बनाई जाती है अभी तक उसका गठन नही हो पाया है। जो शिकायतें यह कमेटीयां सुनती थी उसे जनमंच के माध्यम से किया जा रहा है। स्वभाविक है कि जब किसी पार्टी की सरकार आती है तब उसके कार्यकर्ताओं को सरकार से यह पहली उम्मीद रहती है जब इसमें भी भाई-भतीजावाद आ जाता है तो उससे कार्यकर्ताओं का मनोबल टूट जाता है। दुर्भाग्य से आज प्रदेश सरकार और संगठन पांच माह में ही इस मुकाम पर पहुंच गये है। अभी जो पेयजल संकट सामने आया है उसमें कितने बड़े नेताओं ने सरकार का पक्ष जनता के सामने रखा है उसी से संगठन की सक्रियता का अनुमान हो जाता है।
इस पांच माह के अल्प समय में ही सरकार अपने होने का कोई बड़ा संकेत नही दे पायी है। यह आम चर्चा चल पड़ी है कि यह दो तीन अधिकारियों की ही सरकार होकर रह गयी है। भ्रष्टाचार को लेकर एक भी मामले में सरकार अपने ही फैसलो पर अमल नही कर पायी है। बीवरेज कारपोरेशन को लेकर धर्मशाला में मन्त्रीमण्डल की पहली ही बैठक में लिये गये फैसले पर सरकार बैकफुट पर आ गयी है। ऐसे दर्जनों मामले घट चुके हैं जहां सरकार के फैसले कोई ज्यादा सराहनीय नही रहे हैं। पानी के मामले में जिस तरह की फजी़हत सरकार को झेलनी पड़ी है उसमें यह ही नही तय हो पाया है यह कि संकट वास्तविक था या की तैयार किया गया था। आने वाले समय में वित्तिय मोर्चे पर भी सरकार की ऐसी ही फजीहत वाली स्थिति बन जाये तो यह यह कोई हैरानी वाली बात नही होगी। सरकार और मुख्यमन्त्री जिस तरह के सलाहकारों से घिर गये हैं यदि समय रहते इससे बाहर नही आये तो लोकसभा चुनावों में इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। फिर से चारो सीटों पर विजय हासिल करना असंभव हो जायेगा।