क्या जयराम लड़ पायेंगे भ्रष्टाचार से- उठने लगा है यह सवाल

Created on Monday, 05 March 2018 12:05
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। जयराम सरकार ने अब वीरभद्र शासन के दौरान प्रदेश के परवाणु और नादौन स्थित गोल्ड रिफाइन्रीज़ को दी गयी करीब ग्यारह करोड़ रूपये की राहत के मामले की जांच करवाने की बात की है। उससे पहले बीवरेज कारपोरेशन के मामले की जांच करवाने के आदेश मन्त्रीमण्डल की धर्मशाला में हुई पहली बैठक में दिये गये थे। जयराम सरकार ने यह भी दोहराया है कि भ्रष्टाचार के प्रति उसकी जीरो टालरैन्स की ही नीति रहेगी। जयराम को सत्ता संभाले दो माह हो गये हैं और बीवरेज़ कारपोरेशन प्रकरण की जांच के आदेश का उसका पहला फैसला था लेकिन अभी तक इस जांच को लेकर बात कोई ज्यादा आगे नही बढ़ी है। इस जांच को समयवद्ध भी तो किया नही गया है। इसलिये इस जांच में पूरा कार्याकाल भी लग जाये तो कोई हैरत नही होगी। गोल्ड रिफाईनरी प्रकरण की जांच की भी कोई समय सीमा तय नही की गयी है। भाजपा ने बतौर विपक्ष वीरभद्र के पिछले पांच वर्ष के कार्याकाल में दिये गये आरोप पत्रों को भी अभी तक विजिलैन्स को नही सौपा है। जयराम सरकार के अगर अब तक के फैंसलों को भ्रष्टाचार की खिलाफत आईने में देखा जाये तो लगता नही हैं कि यह सरकार भी धूमल और वीरभद्र सरकारों से बेहतर इस संद्धर्भ में कुछ कर पायेगी। क्योंकि जिन दो मामलों में मन्त्रीमण्डल की बैठकों में जांच के फैसले लिये गये हैं उन दोनों मामलों को लेकर वीरभद्र सरकार ने भी मन्त्राीपरिषद् की बैठक मे ही फैसले लिये थे। दोनो मामलों में करोड़ो का वित्तिय हानि/लाभ जुड़ा रहा है। सरकार के काम काज़ की प्रक्रिया की जानकारी रखनेवाले जानते हैं कि जिस भी मामले में वित्त जुड़ा हो उस पर फैसला लेने से पहले वित्त विभाग की राय अवश्य ली जाती है। यदि समय के अभाव के कारण पहले वित्त विभाग को फाईल न भेजी जा सकी हो तो मन्त्रीपरिषद् की बैठक में ही वित्त विभाग की राय दर्ज की जाती है स्वभाविक है कि इन मामलो में भी वित्त विभाग की राय अवश्य ली गयी होगी। वीरभद्र शासन के दौरान जो वित्त सचिव थे वही आज भी है। इसलिये आज यह उम्मीद किया जाना स्वभावतः ही व्यवहारिक नहीं लगता कि वित्त विभाग इन फैसलों को अब गलत करार दे दे।
दरअसल हकीकत यह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कारवाई कर पाना किसी भी सरकार के वर्ष में होता ही नही हैं बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि किसी की भी नीयत ही नही होती है। केवल भ्रष्टाचार की खिलाफत का ज्यादा से ज्यादा प्रचार करना ही नीयत और नीति रहती है। स्मरणीय है कि वीरभद्र सरकार में 31 अक्तूबर 1997 को भ्रष्टाचार के खिलाफ एक रिवार्ड स्कीम अधिसूचित की गयी थी इसमें भ्रष्टाचार की शिकायतों पर एक माह के भीतर प्रारम्भिक जांच किये जाने का प्रावधान किया गया था। शिकायत गलत पाये जाने पर शिकायतकर्ता के खिलाफ कारवाई का भी प्रावधान किया गया है। यह स्कीम सरकार में आज भी कायम है क्योंकि इसे वापिस नही लिया गया है। लेकिन स्कीम अधिसूचित होने के बाद आजतक इसके तहत वांच्छित नियम तक नही बनाये गये है। इसमें कोई वित्तिय प्रावधान नही किया गया है। विजिलैन्स को इसकी आजतक अधिकारिक रूप से कोई जानकरी ही नही है। इस स्कीम के तहत आज भी विजिलैन्स के पास कई गंभीर शिकायतें वर्षों से लंबित पड़ी हैं जिनपर कारवाई का साहस नही हो रहा है। इसी स्कीम के तहत आयी एक शिकायत जब उच्च न्यायालय तक पंहुच गयी थी तब वीरभद्र सिंह की 98 बीघे ज़मीन सरप्लस घोषित होकर सरकार में वेस्ट होने के आदेश हुए थे जिन पर आज तक अमल नहीं हो पाया है।
1998 में जब धूमल ने सरकार संभाली थी तब 1993 से 1998 के बीच हुई चिट्टों पर भर्ती के प्रकरण में हर्ष गुप्ता और अवय शुक्ला के अधीन दो जांच कमेटीयां गठित की गयी थी। इन कमेटीयों की रिपोर्ट में हजारों मामलें चिट्टो पर भर्ती के सामने आये थे लेकिन अन्त में धूमल सरकार ने कुछ नही किया। इसके बाद जब यह मामला शैल में कमेटीयो की रिपोर्ट छप जाने के बाद उच्च न्यायालय पहंचा तब अदालत ने कड़ी टिप्पणी करते हुए इसमें एफआईआर दर्ज किये जाने के आदेश किये। यह पूरा मामला सरकारी तन्त्र की कारगुज़ारी का एक ऐसा दस्तावेज है जिसे देखने के बाद प्रशासनिक तन्त्र और राजनीतिक नेतृत्व को लेकर धारणा ही बदल जाती है क्योंकि इस मामले की जांच के बाद जिस तरह से विजिलैन्स ने दो तीन सेवानिवृत अधिकारियों के खिलाफ चालान दायर करके सारे मामले को खत्म किया है उसे देखकर तो जांच ऐजैन्सी पर से ही विश्वास उठ जाता है बल्कि ऐसी एैजैन्सियों को तो तुरन्त प्रभाव से भंग ही कर दिया जाना चाहिये।
इसी तरह जब प्रदेश के हाईडल प्रौजैक्टस को लेकर उच्चन्यायालय के निर्देशों पर अवय शुक्ला कमेटी ने 60 पन्नो से अधिक की रिपोर्ट सौंपी और उसमें आॅंखें खोलने वाले तथ्य सामने रखे तो उसके बाद आजतक इस रिपोर्ट पर सरकार और अदालत में क्या कारवाई हुई यह कोई नही जानता। जेपी के थर्मल प्लांट प्रकरण में भी अदालत के निर्देश पर केसी सडयाल की अध्यक्षता में एक एसआईटी गठित हुई थी इसकी रिपोर्ट भी अदालत को चली गयी थी लेकिन उसके बाद क्या हुआ यह भी कोई नही जानता। यही नहीं जब शिमला और कुछ अन्य शहरों में पीलिया फैला था तब उसकी जांच के लिये अदालत के निर्देशों पर एफआईआर हुई थी। चालान अदालत में गया लेकिन सरकार ने संवद्ध अधिकारियों के खिलाफ मुकद्यमा चलाने की अनुमति नही दी। क्या यह सब अपने में ही भ्रष्टाचार नही बन जाता है। आज अवैध निर्माणों और अवैध कब्जों के मामले में एनजीटी ने कसौली के मामले में कुछ अधिकारियों को नामतः दोषी चिन्हित करके मुख्य सचिव को कारवाई के निर्देश दिये हुए हैं। लेकिन आज तक कारवाई नही हुई है। क्या जयराम यह कारवाई करवा पायेंगे?
वीरभद्र सरकार ने अपने पूरे कार्याकाल में एचपीसीए और धूमल के संपत्ति मामलों पर ही विजिलैन्स को व्यस्त रखा लेकिन पूरे पांच साल में यह ही तय नही हो पाया है कि क्या एचपीसीए सोसायटी है या कंपनी। वीरभद्र के निकटस्थ रहे अधिकारी सुभाष आहलूवालिया और टीजी नेगी एचपीसीए में खाना बारह में दोषी नामज़द है और इसी कारण से वीरभद्र सरकार इन मामलों में सार्वजनिक दावों से आगे नही बढ़ पायी। धूमल ने अपने संपत्ति मामले में जब यह चुनौती दी कि इस समय प्रदेश के मुख्यमन्त्री रहे शान्ता कुमार, वीरभद्र और धूमल तीनों ही मौजूद हैं इसलिये तीनो की संपत्ति की जांच सीबीआई से करवा ली जाये। तब धूमल की इस चुनौती के बाद वीरभद्र इसमें आगे कुछ नही कर पाये। भ्रष्टाचार का कड़वा सच लिखने वाले शान्ता कुमार के विवेकानन्द ट्रस्ट के पास फालतू पड़ी सरकारी ज़मीन को वापिस लिये जाने के लिये आयी एक याचिका पर सरकार अपना स्टैण्ड स्पष्ट नही कर पायी है। सरकार से जुड़े ऐसे दर्जनों प्रकरण है जहां पर सरकार की कार्यप्रणाली को लेकर स्वभाविक रूप से सन्देह उठते हैं और यह सन्देश उभरता है कि सरकार को भ्रष्टाचार केवल मंच पर भाषण देने के लिये और लोगों का ध्यान बांटने के लिये ही चाहिये। आज इसी भ्रष्टाचार के कारण प्रदेश कर्ज के गर्त में डूबता जा रहा है। इसलिये या तो सरकार भ्रष्टाचार के मामलों की जांच को समयबद्ध करे या फिर जांच का ढोंग  छोड़ दे।