शिमला/शैल। केन्द्रिय स्वास्थ्य मन्त्री जगत प्रकाश नड्डा की प्रदेश के चुनाव में इस बार ज्यादा सक्रिय भूमिका नही रह पायी है जबकि वह राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के बड़े नेताओं में गिने जाते हैं। यहां तक चर्चा है कि शाह के बाद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हो सकते हैं। इस पृष्ठभूमि को सामने रखते हुए यह स्वभाविक है कि प्रदेश में चुनाव प्रचार के लिये जितना अधिक समय वह देंगे उससे पार्टी को लाभ ही मिलेगा क्योंकि वह हिमाचल से ही हैं बिलासपुर उनका अपना जिला है। लेकिन इसी जिले से ताल्लुक रखने वाले भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और तीन बार सांसद रहे सुरेश चन्देल इन चुनावों में कांग्रेस में शामिल हो गये हैं। सुरेश चन्देल जब भाजपा छोड़ कांग्रेस में शामिल हुए थे तब तक बिलासपुर के कुछ भाजपा कार्यकर्ताओं का सोशल मीडिया में यह नारा ‘‘नड्डा तुझसे बैर नही अनुराग तेरी खेरी नही’’ काफी चर्चा का विषय बना रहा है। नड्डा प्रदेश से राज्यसभा के सांसद हैं लेकिन उनकी सांसद निधि का बहुत बड़ा भाग हमीरपुर के नादौन ब्लॉक में बंटा है। नादौन से भाजपा के विजय अग्निहोत्री एक बार विधायक रह चुके हैं। 2017 का चुनाव हारने के बाद वह हमीरपुर जिले से पार्टी अध्यक्ष बना दिये गये है। नड्डा की सांसद निधि के वितरण के जो आंकड़े आरटीआई के माध्यम से बाहर आये हैं उनके मुताबिक अग्निहोत्री को नड्डा की सबसे अधिक स्पोर्ट हासिल है। अन्गिहोत्री के रिश्ते धूमल के साथ कोई बहुत अच्छे नही माने जाते हैं। हमीरपुर संसदीय क्षेत्र में ही ऊना जिला आता है। ऊना के पूर्व विधायक सतपाल सत्ती भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष हैं। लेकिन सत्ती प्रदेश भाजपा के अकेले ऐसे नेता हैं जिन्हे अपने ब्यान के लिये चुनाव आयोग का 48 घन्टे का चुनाव प्रचार प्रतिबन्ध सहना पड़ा है। सत्ती ने राधा स्वामी संतंसग ब्यास के अनुयायीयों को लेकर जो टिप्पणी की थी उसकी नाराज़गी इस समुदाय के लोगों में अभी तक शान्त नही हुई है। राधा स्वामी समुदाय का हमीरपुर और कांगड़ा के संसदीय क्षेत्रों में बहुत प्रभाव है और चुनावों में इनकी नाराजगी भारी पड़ सकती है।
इस समय प्रदेश में चुनाव प्रचार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी स्वयं मुख्यमंत्री जयराम पर है। वही इस समय पूरी बागडोर संभाले हुए हैं और पूरे प्रदेश में घूम रहे हैं। उनके अपने गृह जिले और संसदीय क्षेत्रा मण्डी से ताल्लुक रखने वाले पंडित सुखराम कांग्रेस में वापसी कर चुके हैं और उनका पौत्र आश्रय शर्मा यहां से कांग्रेस टिकट पर चुनाव लड़ रहा है। आश्रय के पिता अनिल शर्मा जयराम के ऊर्जा मंत्री थे। इनका मन्त्रीपद जयराम ने आश्रय के कांग्रेस का उम्मीदवार बनने के बाद छीना है। पंडित सुखराम केन्द्र में दूर संचार मन्त्री रहे हैं और इस नाते दूर संचार की जो सुविधा/सेवा उन्होने प्रदेश के हर गांव तक पहुंचाई है उसके लिये प्रदेश में उनका एक अपना अलग स्थान बन चुका है। 2017 में मण्डी जिले की दस में से नौ सीटें भाजपा ने उन्ही के सहारे जीती हैं यह सब मानते हैं। ऐसे में चुनावों के वक्त पर सुखराम और सुरेश चन्देल का भाजपा को छोड़कर जाना पार्टी और जयराम दोनों के लिये नुकसानदेह साबित हो सकता है क्योंकि सभी ने अपनी उपेक्षा होने का आरोप लगाया है। सरकार बनने के बाद सबके मान सम्मान का ख्याल रखना मुख्यमन्त्रा की अपनी जिम्मेदारी बन जाता है और इसमें निश्चित रूप से जयराम काफी कमजोर साबित हुए हैं।
सरकार बनने के बाद जयराम के अपने चुनाव क्षेत्रा में एसडीएम कार्यालय को लेकर जो विवाद उठा था उस विवाद में धूमल और जयराम के राजनीतिक रिश्तो में दरार आ गयी थी। इस विवाद को हवा देने में धूमल का नाम लग गया था। यह नाम लगने पर धूमल को यहां तक कहना पड़ गया था कि सरकार चाहे तो इसमें सीआईडी से जांच करवा ले। विधानसभा का चुनाव धूमल को नेता घोषित करके लड़ा गया था। लेकिन संयोगवश धूमल स्वयं और उनके कई अन्य विश्वस्त चुनाव हार गये। लेकिन इस हार के वाबजूद विधायकां का बहुमत उनको मुख्यमन्त्री बनाना चाहता था। दो विधायकों ने तो उनके लिये सीट छोड़ने की ऑफर कर दी थी। धूमल की हार के बाद मुख्यमन्त्री पद के लिये नड्डा का नाम सबसे ऊपर चल रहा था। नड्डा के समर्थक पूरी तरह तैयार होकर आ गये थे। लेकिन जयराम के जयपूर संबंधो ने सारा खेल बदल दिया। इस गेम में भले ही जयराम जीत गये लेकिन इसमें जो विसात बिछ गयी थी अभी तक सीमटी नही है। सभी अपना-अपना दांव खेलने की फिराक में हैं। क्योंकि पार्टी के अन्दर न केवल जयराम के समकक्ष ही कुछ लोग हैं बलिक कई उनसे वरिष्ठ भी हैं। फिर मुख्यमन्त्री बनने की ईच्छा तो हर विधायक और सांसद में होना स्वभाविक है। अपनी ईच्छाओं को रणनीतिक सफलता देने के लिये चुनावों से ज्यादा अच्छा अवसर कोई नही होता है यह सब जानते हैं।
कांगड़ा में शान्ता कुमार इस बार चुनाव लड़ना चाहते थे यह सर्वविदित है लेकिन जिस ढंग से उन्हें चुनाव से हटाया गया है उसकी पीड़ा वह जगजाहिर कर चुके हैं। शान्ता कुमार ने भी सोनिया गांधी की 2004 की शाईनिंग इण्डिया टिप्पणी का समर्थन किया है। इस समर्थन के भी राजनीतिक मायने अलग हैं। इसी तरह सोफत के भाजपा में शामिल होने के बाद उनके विश्वस्त पवन ठाकुर द्वारा बिन्दल के खिलाफ उच्च न्यायालय में याकिचा दायर किये जाने को भी राजनीतिक हल्को में जयराम के साथ जोड़कर देखा जा रहा है। फिर राष्ट्रीय स्तर पर संघ प्रमुख मोहन भागवत का यह कथन कि अब हर पांच साल बाद सरकार बदल जाती है तथा राम माधव का यह कहना कि भाजपा सहयोगीयों के साथ मिलकर सरकार बना लेगी और गडकरी का यह कहना कि अगला प्रधानमन्त्री भाजपा का नही बल्कि एनडी का होगा यह वक्तव्य अपने में बहुत कुछ कह जाते हैं। क्योंकि जब शीर्ष से भी ऐसे अस्पष्ट से ब्यान आने लग जाते हैं तब बार्डर लाईन पर बैठे हुए विरोधीयों और विद्रोहीयों को खुलकर खेलने का मौका मिल जाता है। राजनीतिक विश्लेषको की नजर में इसमें जयराम प्रदेश में इसी दौर में से गुजर रहे हैं और इससे उनका आने वाला राजनीतिक सफर काफी कठिन हो सकता है।
इस परिदृश्य में नड्डा की भूमिका को लेकर प्रदेश के राजनीतिक हल्कां में सवाल उठने स्वभाविक हैं क्योंकि नड्डा को प्रदेश के मुख्यमन्त्री के पद के लिये जयराम से ज्यादा बड़ा दावेदार माना जा रहा है। इस दावेदारी के चलते नड्डा का प्रदेश के चुनाव से बाहर रहना नड्डा और जयराम दोनां की अपनी अपनी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। लेकिन अब जब अमितशाह ने चुनाव जीतने के बाद अनुराग को बड़ी जिम्मेदारी देने की घोषणा कर दी है तब अनुराग का नाम भी नड्डा और जयराम के साथ प्रदेश के बडे़ पद के लिये जुड़ जाता है। ऐसे में एक और दावेदार का खड़ा हो जाना पूरे राजनीतिक परिदृश्य और जटिल बना देता है। इसलिये माना जा रहा है कि अपरोक्ष में छिड़ी दावेदारों की यह जंग इस चुनाव में पार्टी की सफलता पर ग्रहण का कारण न बन जाये।