सरकार अभी तक भी नही कर पा रही है कोई कारवाई क्यों
क्या कुछ मन्त्रीयों और अधिकारीयों का दबाब है
शिमला/शैल। प्रदेश में अवैध निर्माणों और अवैध कब्जों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय से लेकर उच्च न्यायालय तक ने इसका कड़ा संज्ञान लिया है। कसौली गोली कांड के बाद तो कड़ाई की स्थिति एकदम बदल गयी है। अभी प्रदेश उच्च न्यायालय ने चिन्तपूर्णी मन्दिर को लेकर आयी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए भरवांई से चिन्तपूर्णी तक सड़क के दोनों किनारों पर हुए अवैध निर्माणों और कब्जों पर एसडीएम अम्ब और देहरा से रिपोर्ट तलब की है और इन्हें हटाने के निर्देश दिये हैं। इसी के साथ इसके लिये जिम्मेदार अधिकारियों की भी जानकारी मांगी है।
कोई भी अवैधता एक दिन मे ही खड़ी नही हो जाती है और न ही यह संवद्ध तन्त्र की मिली भगत के बिना संभव होता है यह न्यायालय साफ कह चुके हैं। तन्त्र की इसी मिली भगत का प्रमाण रहा है कसौली कांड। जहां अदालत के फैसले पर अमल करवाने के लिये गये दो कर्मियों को जान से हाथ धोना पड़ा है। इस कांड का जब सर्वोच्च न्यायालय ने कड़ा संज्ञान लिया और इन अधिकारियों/कर्मियों को उपलब्ध करवाई गयी पुलिस सुरक्षा पर रिपोर्ट तलब की तब सरकार ने मण्डलायुक्त शिमला को इसकी जांच सौंपी। मण्डलायुक्त की रिपोर्ट में जब पुलिस की असफलता सामने आयी तब सरकार ने पुलिस अधिकारियों/कर्मियों के खिलाफ कारवाई करते हुए उनको निलंबित कर दिया। इस निलम्बन में तत्कालीन एसपी भी शामिल हैं जब एसपी मौके पर वहां थे ही नही। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश मिलने के बाद डीसी सोलन ने इन आदेशों की अनुपालना सुनिश्चित करने के लिये एसपी को निर्देश दिये थे। इन निर्देशों पर एसपी ने टीम गठित की थी। लेकिन इस टीम में जो प्रशासनिक अधिकारी नायब तहसीलदार और एसडीएम थे क्या वह भी एसपी के निर्देशों पर आये थे या इसके लिये डीसी ने इन्हें तैनात किया था। यदि इसमें एसपी असफल रहे हैं तो क्या उसी तरह डीसी और उनके लोग भी असफल नहीं रहे हैं। पुलिस पर हुई कारवाई के बाद अब इस पर भी सवाल उठने लगे हैं।
कसौली के अवैध निर्माणों पर एनजीटी का 2017 मई में फैसला आ गया था। एनजीटी ने अपने फैसले में इन निर्माणों के लिये जिम्मेदार रहे कुछ अधिकारियों को चिन्हित करके उनके खिलाफ कारवाई करने के निर्देश दिये थे जिन पर आज तक अमल नही हुआ है। एनजीटी ने अपना फैसला देने से पहले प्रदेश सरकार से एक रिपोर्ट तलब की थी इसके लिये एक कमेटी बनी थी। अतिरिक्त मुख्य सचिव तरूण कपूर की अध्यक्षता में बनी इस कमेटी की रिपोर्ट एनजीटी के फैसले में दर्ज है और यह रिपोर्ट भी फैसले का बड़ा आधार रही है। अब सर्वोच्च न्यायालय का भी फैसला आ जाने के बाद इसी रिपोर्ट के आधार पर फैसले का रिव्यू दायर किया गया है। क्योंकि जब तक रिव्यू का फैसला नही आ जाता है तब तक चिन्हित अधिकारियों के खिलाफ कारवाई से बचा जा सकता है।
इसी तरह जब कसौली को लेकर याचिकाएं चल रही थी तब प्रदेश उच्च न्यायालय में भी एक याचिका आयी जिसमें धर्मशाला और उसके आसपास हुए अवैध निर्माणों का प्रश्न उठाया गया था। इसका संज्ञान लेते हुए अदालत ने अप्रैल 2017 में रिपोर्ट तलब की। इसी रिपोर्ट पर पर्यटन और प्रदूषण बोर्ड की सूचियों में अन्तर सामने आया। फिर से पूरे प्रदेश को लेकर रिपोर्ट तलब की गयी और अवैध रूप से चल रहे होटल अब तक सामने आ चुके थे उसके बिजली पानी के कनैक्शन काटने के आदेश किये गये। इस पर करीब 200 होटलों के बिजली पानी काटे गये लेकिन इसके बाद पूरे प्रदेश को लेकर पर्यटन विभाग की ओर से दिसम्बर 2017 में जो शपथ पत्र उच्च न्यायालय में दायर किया गया है उसके मुताबिक प्रदेश में 2880 होटल ईकाईयां पंजीकृत है और इनमें से 1524 में निर्माण से लेकर अन्य अवैधताएं पायी गयी हैं। पर्यटन विभाग के इस शपथ पत्र से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रदेश में आधे से ज्यादा होटल अवैध रूप से चल रहे हैं। इतने बड़े स्तर पर जब यह अवैध होटल प्रदेश में चल रहे हैं तो यह सवाल उठना स्वभाविक है कि क्या प्रदेश में प्रशासन नाम की कोई चीज शेष बची है? क्या पूरी तरह अराजकता फैल चुकी है। इसमें सबसे दिलचस्प तो यह है कि विभाग अपने ही शपथपत्र में यह आंकडा उच्च न्यायालय के सामने रख रहा है लेकिन इसके बावजूद अभी तक प्रशासन की ओर से इन अवैधताओं के खिलाफ कोई कारवाई नही की जा रही है। इसमें भी उच्च न्यायालय के ही आदेशों की प्रतिक्षा की जा रही है। सूत्रों की माने तो होटल व्यवसाय में सरकार के कई मन्त्री भी प्रत्यक्षतः/अप्रत्यक्षतः शामिल हैं। मन्त्रीयों के अतिरिक्त कई अधिकारी भी इसमें शामिल हैं और उनका सीधा प्रभाव मुख्यमन्त्री के कार्यालय तक है। इसी प्रभाव के कारण इन अवैधताओं के खिलाफ कारवाई करने का साहस नही हो पा रहा है।